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हुई। समय पर देवी ने सूर्य के पूर्व दिशा में उदित होने के साथ ही प्रसव किया, वैसे ही उसने पुत्र रत्न को जन्म दिया। राजा ने बड़े समारोह से उसका जन्मोत्सव किया एवं विशाल उत्सव करके उसका स्वर्णबाहु अभिधान किया। भातृजनों एवं राजाओं के एक के उत्संग से दूसरे उत्संग में जाकर वह कुमार राहगीर जैसे नदी का उल्लंघन करते हैं, वैसे शनैः शनैः बाल्यवय का उल्लंघन कर गया। पूर्वजन्म के संस्कार से उसने सर्व कलाओं का सुखपूर्वक संपादन किया और कामदेव के सदनरूप यौवनवय को प्राप्त किया। वह सुवर्णबाहु कुमार रूप से और पराक्रम से जगत् में असामान्य हुआ। साथ ही विनयलक्ष्मी से पराक्रम से अधिष्य (कोई भी धारण न कर सके) हुआ। कुलिशबाहु राजा ने पुत्र को योग्य जानकर उसका राज्याभिषेक किया एवं स्वयं ने भववैराग्य से दीक्षा अंगीकार की। सौधर्म देवलोक के इंद्र के तुल्य पृथ्वी में अखंड आज्ञा का प्रवर्तन करके अनके प्रकार के भोगों का भोग करके वह कुमार सुखपूर्वक अमृतरस में मग्न रहने लगा।
(गा. 198 से 210) एक बार हजारों हाथियों से परिवृत वह कुमार अश्वों में आठवां हो वैसे एक अपूर्व अश्व पर आरूढ होकर क्रीड़ार्थ निकला। अश्व का वेग ज्ञात करने हेतु राजा ने उस पर चाबुक से प्रहार किया। तब तत्काल वह पवनवेगी मृग की भांति अतिवेग से दौड़ा। उसे खड़ा रखने के लिए जैसे जैसे राजा ने उसकी लगाम खींची वैसे वैसे वह विपरीत शिक्षित अश्व अधिक से अधिक दौड़ने लगा। माननीय “गुरुजनों को दुर्जन व्यक्ति त्याग देता है, वैसे मूर्तिमान् पवन जैसे उस अश्व ने क्षणभर में तो सर्व सैनिकों को पीछे छोड़ दिया।" अतिवेग के कारण वह अश्व भूमि पर चल रहा है या आकाश में चल रहा है, यह कोई भी जान नहीं सकता था। एवं राजा भी मानों उसके ऊपर उद्गत हुआ हो, वैसे लोग तर्क करने लगे। क्षणभर में तो उस अश्व सहित वह राजा विचित्र वृक्षों से संकीर्ण और विविध प्राणियों से आकुलित ऐसे दूर के वन में आ पहुँचा। वहाँ उसने आशय के समान एक निर्मल सरोवर राजा को दृष्टिगत हुआ। उसे देखते ही तृषातुर और श्वासपूर्ण हुआ वह
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)