________________
अश्व स्वयं ही खड़ा रह गया। तब अश्व के ऊपर से पर्याण उतार कर उसने अश्व को नहलाया एवं पानी पिलाया।
(गा. 211 से 220) फिर स्वयं ने भी स्नान करके जलपान किया। सरोवर से निकलकर क्षणभर तट पर आकर विश्राम करके राजा आगे बढ़ा। वहाँ उसे एक रमणीय तपोवन दृष्टगत हुआ। उसमें तापसों के छोटे छोटे बालक उत्संग में मृगशावकों को लेकर क्यारियों में रहे वृक्षों के मूल को जल से सींच रहे थे। यह दृश्य देख राजा अत्यन्त खुश हो गया। उस तपोवन में प्रवेश करते समय चिन्तनशील हुआ उस राजा का मानो कोई नवीन कल्याण सूचित करता हो वैसा दाहिना नेत्र फड़कने लगा। वहाँ हर्षयुक्त चित्त से आगे बढ़ते हुए दक्षिण दिशा की ओर सखियों के साथ जल के कलशों से वृक्षों का सिंचन करते हुए एक मुनिकल्याण दिखाई दी। उसे देखकर राजा ने विचार किया कि, अहो! ऐसा रूप तो अप्सराओं में, नागपत्नियों या मनुष्य की स्त्रियों में भी दिखाई नहीं देता। यह बाला तो तीन लोक से भी अधिक रूपवन्त है। ऐसा विचार करके वह वृक्ष की ओट में रहकर बारम्बार उस बाला को देखने लगा। इतने में तो वह बाला सखियों सहित माधवीमण्डप में आकर फिर अपने पहने हुए वल्कल वस्त्र के दृढ़ बंधन शिथिल करके, बकुल पुष्प जैसे सुगंधित मुखवाली वह बाला बोरसली के वृक्ष का सिंचन करने लगी। राजा पुनः चिंतन करने लगा कि “कमल जैसे नेत्रवाली रमणी का ऐसा सुंदर रूप कहाँ ?” और “एक साधारण स्त्री के योग्य ऐसा काम कहाँ ?" यह तापसकन्या तो नहीं होनी चाहिए, क्योंकि मेरा मन उस पर अनुरक्त हो गया है। अतः यह अवश्य ही कोई राजपुत्री होनी चाहिए, और कहीं से यहाँ आ गई होगी? राजा ऐसा विचार कर ही रहा था कि इतने में उस पद्मावती के मुख से पास उसके श्वास की सुगंध से आकर्षित होकर एक भँवरा वहाँ आया और उसके मुख के आसपास घूमने लगा। तब वह बाला भय से करपल्लव को काँपते हुए उसे उड़ाने लगी। परंतु जब भंवरे ने उसे छोड़ा नहीं, तब वह सखी को उद्देश्य करके कहने लगी कि इस भ्रमर
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
[61]