Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 07
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 69
________________ ऐसे अनुक्रम से उड़कर तप के विजय में पधारे। से आकाशगामिनी लब्धि धारक हुए। एक वक्त आकाशमार्ग तेज से मानों दूसरा सूर्य हो, ऐसे वे मुनि सुकच्छ नामक (गा. 169 से 178) वह सर्प जो छठी नरक में उत्पन्न हुआ था, वह वहाँ से निकलकर सुकच्छ विजय में आए ज्वलनगिरि की विशाल अटवी में कुरंगक नामका भील हुआ। यौवनवय होने पर वह भील प्रतिदिन धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर आजीविका के लिए अनेक प्राणियों का संहार करता हुआ उस गिरि की गुफा में भ्रमण करने लगा। वे वज्रनाभ मुनि भी विचरण करते हुए यमराज के सैनिकों जैसे अनेक शिकारी प्राणियों के स्थान रूप उस अटवी में आ चढ़े। चमरू आदि क्रूर प्राणियों से भय रहित होकर वे मुनि ज्वलनगिरि पर आए। उसी समय सूर्यास्त हो गया । उस समय ज्वलनगिरि की कंदरा में ही मानो उसका नवीन शिखर हो, वैसे काउसग्ग ध्यान में स्थित हो गए। उस समय राक्षसों के कुल की भांति सर्व दिशाओं में अंधकार व्याप्त हो गया । यमराज के मानो क्रीडापक्षी हो वैसे। उलूक पक्षी धुत्कार करने लगे । राक्षसों के गायक नाहर प्राणी उग्र आक्रंद करने लगे। डंके से वाजिंत्र के समान वाद्य पूँछ से पृथ्वी पर प्रहार करते हुए इधर उधर घूमने लगे । विचित्र आकृति युक्त शाकिनी, योगिनी और व्यंतरियाँ किलकिल शब्द करती हुई वहाँ एकत्रित हो गई। स्वभाव से ही अति भयंकर काल और क्षेत्र में भी वे वज्रनाभ भगवान उद्यान में निर्भय और निष्कंप होकर स्थित रहे। इस प्रकार ध्यानस्थ हुए मुनि ने रात्रि निर्गमन की । प्रातः काल में उनके तप तेज की ज्योति स्वरूप सूर्यज्योति प्रकाशित हुई । अर्थात् सूर्यकिरण के स्पर्शमात्र से ही जीव जंतु रहित भूमि पर युगमात्र दृष्टि प्रक्षेप करते हुए मुनि ने अन्यत्र विहार करने के लिए वहाँ से प्रस्थान किया । (गा. 179 से 189) इसी समय वाद्य के समान क्रूर और वाद्य के चर्म को ही धारण करने वाला वह कुरंगक भील हाथ में धनुष और तीर-कमान लेकर शिकार करने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( नवम पर्व ) [58]

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