________________
भी अपराध नहीं है, परंतु अश्वों की भांति पुत्रों का भी भार उतारने के लिए ही पालन किया जाता है। इसीलिए हे पुत्र ! अब तू कवचधारी हुआ है, अतः मेरा दीक्षा का मनोरथ पूर्ण कर, क्योंकि यह मनोरथ तो मुझे जन्म के साथ ही उत्पन्न हुआ है । अब तेरे होने पर भी यदि मैं राज्यभार से आक्रांत हुआ, तो भवसागर में डूब जाऊँगा । तो फिर सुपुत्रों की स्पृहा कौन करेगा ? इस प्रकार राजा के कहने पर भी यदि मैं राज्यभार से आक्रांत हुआ, तो भवसागर में डूब जाऊँगा तो फिर सुपुत्रों की स्पृहा कौन करेगा ? इस प्रकार राजा की राजाज्ञा होने पर अनिच्छा से उस पुत्र को राज्याधीन किया । " कुलीन पुरुषों को गुरुजन की आज्ञा महाबलवान् है ।"
(गा. 151 से 168)
इसी समय क्षेमंकर नामके जिनेश्वर भगवान् उस नगरी के बर्हिउद्यान में समवसरे। उनके आगमन का श्रवण कर वज्रनाभ राजा अत्यन्त आनंदित होकर चिंतन करने लगे कि, “ अहो! आज मेरे मनोरथ के अनुकूल अत्यन्त पुण्योदय से अर्हन्त प्रभु का समागम प्राप्त हुआ है ।" पश्चात् विपुल समृद्धि के साथ दीक्षा की भावना से वे तत्काल प्रभु के समीप गए। वहाँ प्रभु को वंदन करके उन्होंने प्रभु से भवोदधितारिणी देशना श्रवण की । देशना सम्पन्न होने पर प्रभु के सम्मुख अंजलीबद्ध होकर उन्होंने प्रभु से निवेदन किया कि, 'हे प्रभु! चिरकाल से इच्छित व्रत का दान देकर मुझे अनुगृहीत करें । उत्तम साधुओं के तुल्य गुरू भी पुण्योदय से प्राप्त होते हैं, आप तो तीर्थंकर प्रभु मुझे गुरू रूप में पुण्य से ही संप्राप्त हुए हैं। अतः में विशेष रूप से पुण्यवान् हूँ। दीक्षा की इच्छा से ही मैंने अभी ही पुत्र का राज्याभिषेक किया है। अतः अब दीक्षा दान के लिए आपका कृपा पात्र बनने को उद्यत हुआ हूँ । इस प्रकार के वज्रनाभ राजा के वचन सुनकर दयालु प्रभु ने स्वयं शीघ्र ही उनको दीक्षा दी। उग्र तपस्या करनेवाले उन राजर्षि ने अल्प समय में श्रुत का अभ्यास किया । पश्चात् गुरु की आज्ञा से एकल विहार प्रतिमा को धारण कर और उग्र तपस्या से जिनका तन कृशता को प्राप्त हो गया है, ऐसे वे महर्षि अनेक नगरों में विहार करने लगे । अखंड और दृढ़ ऐसे मूलोत्तर गुणों के धारक वे मुनि मानों दो दृढ़ पंख वाले हों,
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( नवम पर्व )
[57]