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अंगधारी श्रुतस्कंध हो वैसे, वे गीतार्थ हुए। अन्यदा गुर्वाज्ञा से एकल विहारी होकर वे मुनि आकाशगमन शक्ति के द्वारा पुष्करवर द्वीप में पधारे वहाँ शाश्वत अर्हन्तों को नमन करके वैताढ्य गिरि के पास हेमगिरि पर वे प्रतिमा धारण करके रहे। तीव्र तप से तप्त, परीषहों को सहन करते और समता भाव में मग्न रहते वे किरणवेग मुनि वहाँ रहकर काल निर्गमन करने लगे।
(गा. 126 से 138) किसी समय उस कुक्कुट नाग का जीव पंचम नरक से निकलकर उसी हिमगिरि की गुफा में विशाल सर्प के रूप में उत्पन्न हुआ। यमराज का भुजादंड हो वैसा वह सर्प अनेक प्राणियों का भक्षण करता हुआ उस वन में घूमने लगा। एक बार घूमते घूमते उसने गिरि के कुंज में स्तंभ के समान स्थिर होकर ध्यान करते हुए किरणवेग मुनि को देखा। तत्काल ही पूर्व जन्म के बैर से क्रोधित होकर रक्तवर्णी नेत्र वाला वह सर्प उन मुनि के चंदन के वृक्ष की भांति उनके शरीर से लिपट गया। पश्चात् तीव्र विषमयी भयंकर दाढ़ों से मुनि को डंक मारे एवं डंक वाले सर्व स्थानों में उसने बहुत सारा विष प्रक्षेपन किया । उस समय मुनि चिन्तन करने लगे कि अहो! यह सर्प कर्म क्षय के लिए मेरा पूर्ण उपकारी है। किंचित् मात्र भी उपकारी नहीं है। दीर्घकाल तक जीकर भी मुझे कर्म क्षय ही तो करने हैं, तो वह कार्य अब स्वल्प समय में ही कर लूँ। इस प्रकार विचार करके, आलोचना करके सर्व जगत्जीवों को खमाकर नवकारमंत्र का स्मरण करते हुए धर्मध्यानस्थ उन मुनि ने तत्काल ही अनशन ग्रहण कर लिया। वहाँ से कालकरके बारहवें देवलोक में जंबु-द्रुमावर्त नाम के विमान में बावीस सागरोपम की आयुष्यवाला देव हुआ। वहां विविध समृद्धियों से विलास करता हुआ, देवताओं से सेवित होकर काल निर्गमन करने लगा।
(गा. 139 से 148) वह महासर्प उस हिमगिरि के शिखर पर घूमता घूमता अन्यदा दावानल में दग्ध हो गया। वहाँ से मरकर २२ सागरोपम की स्थितिवाला तमः प्रभा नरक में नारकी रूप उत्पन्न हुआ। वहां ढाई सौ धनुष की काया वाला उस
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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