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प्राग्विदेह के सुकच्छ नाम के विजय में वैताढ्य गिरि पर तिलका नामकी नगरी थी। उस नगर में मानों दूसरा इन्द्र हो वैसा सर्व खेचरों को झुकाने वाला विद्युत्गति नाम का खेचरपति राजा था उसके अपनी रूपसंपति से सम्पूर्ण अंतःपुर में तिलक सदृश कनकतिलका नामक पट्टराणी थी। उसके साथ विषयभोग करते हुए राजा का काफी समय व्यतीत हुआ। किसी समय आठवें देवलोक में जो गजेन्द्र का जीव था, वह वहां से च्यवकर कनकतिलका की कुक्षि में अवतरा। समय पर सर्वलक्षणसंपन्न एकपुत्र रत्न को जन्म दिया। पिता ने किरणवेग नामकरण किया। धायमाताओं से लालन पालन करता हुआ, बड़ा होने लगा। क्रमशः युवावस्था को प्राप्त हुआ। विद्युत्गति ने प्रार्थना पूर्वक, अतिआग्रह से उसे राज्य ग्रहण कराया और स्वयं ने श्रुतसागर गुरु के पास व्रत ग्रहण किया।
(गा. 118 से 125) सद्बुद्धिमान उस किरण वेग ने निर्लोभता से पिता के राज्य की पालन किया और अनासक्तभाव से विषयसुख का सेवन करने लगा। कुछेक दिनों में उसकी पद्मावती रानी के उदर से तेज के पुंज सम किरणतेज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। अनुक्रम से कवचधारी और विद्या साधना करने वाला महामनस्वी पुत्र मानो किरणवेग की प्रतिमूर्ति हो, ऐसा दिखने लगा। ऐसे समय में एक सुरगुरु नाम के मुनि महाराज वहाँ समवसरे। यह समाचार सुनकर किरणवेग ने वहाँ जाकर उनको भावपूर्वक वंदन किया एवं उनकी चरणोपासना की। उनके आग्रह से उनके अनुग्रह के लिए मुनि महाराज ने धर्मदेशना दी- हे राजन्! इस संसार रूप वन में चतुर्थ पुरुषार्थ (मोक्ष) के साधन रूप मनुष्य भव अत्यन्त दुर्लभ है। वह प्राप्त होने पर अविवेकी मूढ प्राणी के जैसे पामर जन अल्पमूल्य से उत्तमरत्न को गंवा देते हैं, वैसे विषय सेवन में उसे गंवा देते हैं। चिरकाल से सेवित वे विषय उसे अवश्य ही नरक में ही गिरा देते हैं। अतः मोक्ष प्रदाता सर्वज्ञभाषित धर्म ही निरंतर सेवन करने योग्य है। “कर्णामृत सम देशना श्रवण कर" तत्काल ही पुत्र को राज्यभार देकर, स्वयं ने सुरगुरु मुनि के पास दीक्षा ली। अनुक्रम से
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)