Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 07
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 64
________________ इधर कमठ मरुभूति के वध से भी शांत हुआ नहीं। उसका ऐसा दुष्कृत्य देखकर उसके गुरु उसके साथ बोले भी नहीं। अन्य तापसों ने भी उसकी बहुत निंदा की। पश्चात् वह विशेष आर्तध्यान से मृत्यु प्राप्त कर कुक्कुट जाति का सर्प हुआ। उस भव में मानो वह पंखवाला यमराज हो, वैसे वह अनेक प्राणियों का संहार करता हुआ भ्रमण करने लगा। एक समय घूमते घूमते उसने सरोवर के ताप से तप्त प्रासुक जल का पान करते हुए उस मरुभूति गजेन्द्र को देखा। इतने में तो वह गजेन्द्र कादव (कीचड़) में फंस गया। तपस्या से उसका शरीर तो कृश हो ही गया था, इससे वह दलदल से बाहर निकल सका नहीं। उस समय वह कुक्कुटनाग वहां जाकर उसके कुंभस्थल पर डंसने लगा। उसका जहर चढ़ने से उस गजेन्द्र ने अपना अवसानकाल समीप जानकर तत्काल समाधिपूर्वक चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान (त्याग) किया। पंच नमस्कार मंत्र के स्मरणपूर्वक धर्मध्यान करता हुआ वह मृत्यु के पश्चात् सहस्रार देवलोक में सतरह सागरोपम की आयुष्य वाला देव बना। वरूणा हथिनी ने भी ऐसा ही दुस्तप तप किया था कि जिससे वह भी मृत्यु प्राप्त करके दूसरे कल्प में श्रेष्ठ देवी हुई। उस ईशान देवलोक में ऐसा कोई देव नहीं था कि जिसका मन रूपलावण्य की संपत्ति से मनोहर ऐसी इस देवी ने हरण न किया हो। परंतु उसने किसी भी देव पर अपना मन किंचित् भी धारण नहीं किया। मात्र उस गजेन्द्र का जीव कि जो आठवें देवलोक में देव हुआ था, उसके ही संगम के ध्यान में वह तत्पर रहने लगी। गजेन्द्र देव ने अवधिज्ञान से उसे अपने पर अनुरक्त जानकर उसे सहस्रार देवलोक में ले गया, एवं अपने अन्तःपुर में शिरोमणि बनाकर रखा। “पूर्वजन्म का बंधा हुआ स्नेह अतिबलवान् होता है।" सहस्रार देवलोक के योग्य विषयसुख का भोग करता हुआ वह देव उसके विरह रहित काल निगमन करने लगा। लम्बा काल व्यतीत होने पर वह कुक्कुट नाग मरकर सतरह सागरोपम की आयुष्य वाला पांचवीं नरकभूमि में नारकी हुआ। नरकभूमि के योग्य विविध प्रकार की वेदना का अनुभव करता हुआ वह कमठ का जीवन कभी विश्रांति को प्राप्त नहीं हुआ। (गा. 104 से 117) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व) [53]

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130