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भी उसका स्पर्श किया नहीं ।" अहर्निश विषयों की स्पृहावाली वह पति का संग न मिलने से अपने यौवन को अरण्य में मालती के पुष्प के समान निष्फल मानने लगी। प्रकृति से ही स्त्रीलंपट कमठ ने विवेक को छोड़कर भ्रातृवधु को बारम्बार देखता हुआ, अनुराग से बुलाने लगा ।
(गा. 19 से 26 )
एक बार वसुन्धरा को एकान्त में देखकर कमठ ने कहा हे सुभ्रू! कृष्ण पक्ष में चंद्रलेखा की भांति मुझे ज्ञात हुआ है कि, मेरा अनुज भाई मुग्ध और नपुंसक है, ऐसी मेरी धारणा है, यही उसका कारण है। अपने जेठ के अमर्याद वचनों को सुनकर जिसके वस्त्र और केश ढीले पड़ गये हैं, ऐसी वसुंधरा कांपती हुई वहाँ से भागने लगी । तब कमठ उसके पीछे दौड़ा, और उसे पकड़ लिया और कहा, 'अरे मुग्धा ! अस्थाने भय क्यों रखती हो ? यह तुम्हारा शिथिल हुआ सुंदर केशपाश अच्छी तरह बांध लो और अपने वस्त्र भी व्यवस्थित कर लो। ऐसा कहकर, उसके न चाहने पर भी वह स्वयं उसका केशपाश और वस्त्र ठीक करने लगा । तब वसुंधरा बोली कि 'तुम ज्येष्ठ होकर यह क्या कर रहे हो ? तुम तो विश्वभूति ( श्वसुर ) के सदृश मेरे पूज्य हो ।' ऐसा कार्य तो तुम्हारे और मेरे दोनों के कुल के कलंक रूप है । कमठ हँसकर बोला कि, 'हे बाले! मुग्धपने से ऐसा मत बोलो और तुम्हारे यौवन को भोग के बिना निष्फल मत करो।' हे मुग्धाक्षि ! मेरे विषयसुख का भोग करो। वह नपुंसक मरुभूति तुम्हारे किस काम का है, कि तथापि तुम उसी को याद करती हो ? शास्त्र में कथन है कि यदि पति भाग जाय, मर जाय, दीक्षा ले, नपुंसक हो अथवा बदल जाय तो इन पांच आपत्तियों में स्त्रियों को दूसरा पति कर लेना चाहिए। इस प्रकार कहकर प्रथम से ही भोग की इच्छुक वसुंधरा को उसने आग्रहपूर्वक अपने अंक में ले लिया, उसकी अमर्यादा की लज्जा को छुड़ा दिया । पश्चात् कामातुर कमठ ने उसके साथ चिरकाल तक रमण किया। तब से ही उसके साथ नित्य एकांत में रत्युत्सव होने लगा।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( नवम पर्व )
(गा. 27 से 36 )
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