________________
T
उन्होंने समन्तभद्राचार्य के पास दीक्षा अंगीकार की । अनुक्रम से गीतार्थ होकर गुरु की आज्ञा से एकलविहारी प्रतिमा को धारण करके अरविंद मुनि भवमार्ग का छेदन करने के लिए एकाकी ही पृथ्वी पर विहार करने लगे । शरीर पर भी ममता रहित होकर उस राजा को विचरण करते हुए उज्जड़स्थान पर या बस्ती में, ग्राम में या नगर में, किसी भी स्थान पर कभी भी आसक्ति नहीं हुई ।
(गा. 59 से 66 )
4
अन्यदा तपस्या से कृश अंगवाले और विविध अभिग्रह को धारण करने वाले वे राजमुनि सागरदत्त सेठ के सार्थ के साथ अष्टापद गिरि की ओर चल दिये। सागरदत्त ने पूछा कि 'हे महामुनि! आप कहाँ पधारेंगे? मुनि ने कहा 'अष्टापद गिरि पर देववंदन के लिए जाना है। सार्थवाह ने पुनः पूछा कि “उस पर्वत पर देव कौन है ? उन देवों के बिंबों को किसने बनाये है? वहां कितने बिंब हैं ? और उनको वंदन करने से क्या फल होता है ?" उस सार्थवाह को आसन्नभव्य जानकर अरविंद मुनि बोले हे भद्र! अरिहंत के बिना देव होने में कोई समर्थ नहीं है। जो वीतराग, सर्वज्ञ, इंद्रपूजित और धर्मदेशना से सर्व विश्व के उद्धारक हैं, वे अरिहंत देव कहलाते हैं। श्री ऋषभ देवप्रभु के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने श्री ऋषभादिक चौवीस तीर्थंकरों की रत्नमय प्रतिमा भरवा कर अष्टापद पर्वत पर स्थापित किये हैं । उनको वंदन करने का मुख्य फल तो मोक्ष है और नरेन्द्र तथा अहमिंद्रादि पद की प्राप्ति यह उसका आनुषंगिक (अवांतर) फल है। हे भद्रात्मा ! जो स्वयं हिंसक, अन्य को दुर्गति दाता और विश्व को व्यामोह कराने वाले हो, उसे देव कैसे कहा जाय ? इस प्रकार मुनि के बोध से उस सागरदत्त सार्थवाह ने तत्काल मिथ्यात्व का त्याग करके उनके पास श्रावक के व्रत ग्रहण किये । पश्चात् अरविंदमुनि उसे प्रतिदिन धर्मकथा कहते हुए उसके साथ ही चलने लगे । अनुक्रम से उस सार्थवाह का सार्थ जहाँ मरुभूति हाथी था, उस अटवी में आ पहुँचा।
[50]
(गा. 67 से 76 )
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व )