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प्राप्त कर शिव तापस के पास जाकर तपस्वी हो गया। उस वन में ही रह कर उसने अज्ञान तप प्रारंभ कर दिया।
(गा. 37 से 50) इधर मरुभूति भी पश्चाताप करने लगा कि “मैंने अपने भाई के दुश्चरित्र का कथन राजा से किया। ओ! हो! धिक्कार है मुझे। अतः चलो अब मैं जाकर अपने उस ज्येष्ठ भ्राता से खमाऊँ।' ऐसा विचार आने पर उसने राजा से पूछा, राजा ने उसे मना किया तो भी वह कमठ के पास गया और उसके चरणों में गिरा। कमठ ने अपनी पूर्व में हुई विडंबना का स्मरण कर के अत्यन्त क्रोधित होकर एक शिला उठाकर मरुभूति के मस्तक पर डाली। उसके प्रहार से पीड़ित हुए मरुभूति पर पुनः उसने उस शिला को उठाकर अपनी आत्मा को निर्भय होकर नरक में डाले, वैसे उसने उसके सिर पर डाली। जिसके प्रहार से पीड़ित हुआ मरुभूति आर्तध्यान से मृत्यु प्राप्त करके विंध्य पर्वत पर विंध्याचल जैसा यूथपति हाथी हुआ। उस कमठ की पत्नि वरुणा भी कोपांध रूप से मर कर उस यूथनाथ गजेन्द्र की व्हाली (प्रिय) हथिनी हुई। यूथपति नदी गिरि आदि स्थलों में स्वेच्छा से उसके साथ अखंड संभोग सुख भोगता हुआ विशेष प्रकार से क्रीड़ा करने लगा।
(गा. 51 से 58) इसी समय में पोतनपुर का राजा अरविंद शरदऋतु में अपनी अंतःपुर की स्त्रियों के साथ राजमहल में क्रीड़ा कर रहा था। उस समय क्रीड़ा करते हुए उसने अकाश में इंद्रधनुष और बिजली को धारण करते, सुशोभित नवीन मेघों को देखा। उस समय अहो! यह मेघ कैसा रमणीय है। इस प्रकार राजा कहने लगा। इतने में तो प्रचंड पवन से वह मेघ आकड़े के तूल के समान तितर बितर होकर बिखर गया। यह देख राजा चिंतन करने लगे, अहो! इस संसार में शरीरादि सब मेघ के समान नाशवंत है। तो उसमें विवेकीजन क्या आशा रखे? इस प्रकार तीव्र शुभ ध्यान करते-करते उस राजा के ज्ञानावरणीय और चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। पश्चात् अपने महेन्द्र नामक पुत्र को राज्य पर स्थापन करके
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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