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सर्ग २ श्री पार्श्वनाथ चरित्र (पूर्व के नव भव का वर्णन)
सर्वप्रकार की कल्याणरूपी लताओं को आलंबन करने में वृक्षरूप, जगत्पति और सर्व के रक्षक श्री पार्श्वनाथ प्रभु को मेरा नमन हो। सकल विश्व के उपकार के हेतु श्री पार्श्वनाथ प्रभु के अति पवित्र चरित्र का अब कथन वर्णित किया जाएगा।
(गा. 1 से 2) इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में नवीन स्वर्ग का खंड हो वैसा पोतनपुर नामक नगर है। 'नगर सरिता के पद्मखंड के तुल्य, राजहंसों से सेवित, लक्ष्मी के संकेतगृह सदृश एवं पृथ्वी के मंडन रूप है। वहाँ के धनाढ्य लक्ष्मी में मानो कुबेर के अनुज बंधु हों और औदार्य में कल्पवृक्ष के सहोदर सम ज्ञात होते थे। वे अमरावती तुल्य और अमरावती उनके तुल्य, इस प्रकार परस्पर प्रतिच्छंदभूत होने से उनकी समृद्धि वाणी के विषय से भी अगोचर थी। उस नगर में अरिहंत के चरणकमल में भ्रमर जैसे और समुद्र के समान लक्ष्मी के स्थानरूप अरविंद नामक राजा राज्य करता था। वह जिस प्रकार पराक्रमियों में अद्वितीय था, वैसे ही विवेकीजनों में भी अद्वितीय था। वह जैसे लक्ष्मीवंत में धुरन्धर गिना जाता, वैसे यशस्वियों में भी धुरन्धर माना जाता था। वह जिस प्रकार दीन, अनाथ, और दुःखी लोगों में धन का व्यय करता था, उस प्रकार पुरुषार्थ के साधन में भी अहोरात्रि व्यय करता था। अर्थात् अहोरात्रि वर्गत्रय को साधने में तत्पर था।'
(गा. 3 से 9) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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