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से निकल कर उस तीर पर इधर उधर चहलकदम करने लगा। इतने में अद्वैत रूप लावण्य से संपत्तिवाली एक नागकन्या उसे दिखाई दी। उसके रूप से विस्मित होकर चक्री वहाँ ही खड़ा रहा। इतने में तो वट वृक्ष पर से मानो जंगम चरण (बडवाई) हो वैसा, एक गोनस जाति का नाग उतरा। उस नागकन्या ने नागिन के रूप की विकुर्वणा करके उस नाग के साथ संवास (विषयभोग) किया। यह देखकर ब्रह्मदत्त चिंतन करने लगा कि यह स्त्री स्वरूपवान् होने पर भी इस नीच सर्प पर आसक्त हुई लगती है। वास्तव में स्त्रियां और जल नीचगामी ही होता है। परंतु इस वर्णशंकर की मुझे उपेक्षा करनी योग्य नहीं है। क्योंकि राजा को तो पृथ्वी पर दुष्ट जनों को शिक्षा देकर सन्मार्ग पर स्थापन करना चाहिए। इस प्रकार विचार करके राजा ने उन दोनों को पकड़ कर उन पर चाबुक से प्रहार किया। फिर क्रोध शांत होने पर उनको छोड़ दिया। तब वे कहीं चले गये। तब राजा को विचार आया कि, अवश्य ही कोई व्यंतर नाग का रूप लेकर इस नाग कन्या के साथ रमण करने आता होगा। राजा ऐसा विचार कर ही रहा था कि इतने में उसका सर्व सैन्य उसके अश्व के पगले पगले चलता हुआ वहाँ आया। तथा स्वामी के दर्शन करके खुश हो गया। तब वह सैन्य से परिवृत हो अपने नगर में चला गया।
(गा. 512 से 530) वह नागकन्या रोती-रोती अपने पति के पास गई और उसने उसे कहा कि “ मनुष्य लोक में कोई ब्रह्मदत्त नाम का व्याभिचारी राजा है। वह घूमता-घूमता अभी भूत रमण अटवी में आया था। मैं अपनी सखियों के साथ यक्षिणी के पास जा रही थी। वहाँ मार्ग में सरोवर आने पर मैंने उसमें स्नान किया। बाहर निकलने पर उसने मुझे देखा। मुझे देखकर कामपीड़ित हुआ, उसने मुझ से रमण करने की इच्छा से याचना की। परंतु 'मैं अनिच्छा से रोने लगी। तब ‘उसने चाबुक से मुझे मारा।' मैंने तुम्हारा नाम भी लिया, तो भी ऐश्वर्य से उन्मत्त हुआ मुझे बहुत देर तक मारा। तब मुझे मरा हुआ जानकर छोड़ कर चला गया। यह सुनकर नागकुमार अत्यन्त क्रोधित हुआ। पश्चात् रात्रि में अपने वासगृह में गये हुए ब्रह्मदत्त को मारने के लिए वहाँ
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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