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बालक के जैसे क्यों मोहित होते हो? मुनि ने इस प्रकार अनेक प्रकार से प्रतिबोध किया, तथापि राजा ने प्रतिबोध प्राप्त नहीं किया। क्योंकि “नियाणा के उदयवाले को बोधित बीज का समागम कहाँ से हो?' उसे अति अबोध्य जानकर मुनि वहाँ से अन्यत्र विहार कर गये। कालदृष्ट सर्प से डंसे मनुष्य के पास मात्र कितनी देर तक बैठा रहे ? पश्चात् उन मुनि ने “घातीकर्म का क्षय करके उज्जवल केवलज्ञान प्राप्त किया और भवोपग्राही कर्मों का हनन करके परमपद को प्राप्त किया।"
(गा. 499 से 511) ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती पद के वैभव से देवताओं में इंद्र के तुल्य राजाओं से सेवित होकर दिवस निर्गमन कर रहा था। एक बार किसी यवन राजा ने लक्षणों से प्रदान किया। सूर्य के सात घोड़ों में से एक हो, वैसा उत्तम अश्व उसे भेंट स्वरूप दिया। अश्व के अनुसार वेगवान् होगा या नहीं ऐसी उसकी परीक्षा करने के लिए ब्रह्मदत्त तत्काल ही उस पर सवार हो गया। ब्रह्मदत्त घुड़सवार, हाथी, सवार, रथी और पददल सहित उस पराक्रमी अश्व पर बैठकर नगर के बारह निकला। महान् पराक्रमी चक्री ने उस अश्व का वेग देखने के लिए कौतुक से दोनों पार्थ से साथल पर उसे दबाया। तथा चाबुक से उस पर प्रहार किया। तब पुंठ से पवन से प्रेरित वाहन के समान चाबुक के स्पर्श से चमककर वह अश्व अतिवेग से दौड़ा और क्षणमात्र में सबके सामने अदृश्य हो गया। राजा ने उसकी लगाम बहुत खींची, तथापि वह अश्व खड़ा न रहा। असंयत इंद्रियों की तरह दौड़ कर एक महाअटवी में आया। क्रूर शिकारी प्राणियों से भी भयंकर ऐसी उस अटवी में वृक्ष से गिरे पक्षी के समान वह अश्व श्रमित होने से स्वयमेव खड़ा हो गया। उस समय राजा तृषार्त होकर इधर उधर जल की तलाश में देखने लगा। इतने में कल्लोल माला से नृत्य करता एक सरोवर उसे दिखाई दिया। अश्व पर से पलान उतार कर प्रथम उसे जलपान कराया, और तट के एक वृक्ष के मूल के साथ उस अश्व को मुखरज्जु द्वारा बांध दिया। तब वन के हाथी के समान सरोवर में प्रवेश करके ब्रह्मदत्त ने स्नान किया और कमल के आमोद से सुगन्धित व स्वच्छ जल का उसने पान किया। फिर सरोवर
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)