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एक बार ब्रह्मदत्त कुमार अपनी वल्लभा के साथ शृंगारगृह में गये। वहाँ गृहगोधा ने गृहगोध से कहा कि हे प्रिय! राजा के अंगराग में से थोड़ा ला दो। जिससे मेरा दोहद (मनोरथ) पूर्ण हो जावे। तब गृहगोध ने कहा, क्या तुझे मेरे शरीर का काम नहीं है? कि जिससे तू मुझे ऐसा लाने को कह रही है ? क्योंकि अंगराग लेने जाऊँगा तो अवश्य ही मेरा मरण हो जायेगा। इस प्रकार उनका वार्तालाप सुनकर राजा हँस पड़ा। तब रानी ने राजा से पूछा कि आप अकस्मात् क्यों हँस पड़े। तब उसने कहा कि कहने से मृत्यु हो जाय, ऐसा राजा को भय होने से राजा ने यूं ही कहा। रानी बोली हे नाथ! इस हँसी का कारण मुझे अवश्य बताना चाहिए। नहीं तो मैं मरण को प्राप्त हो जाऊँगी, क्योंकि मुझ से गुप्त रखने का क्या कारण है ? राजा ने कहा, "वह कारण तुमको न कहने से तुम तो मरोगी नहीं परंतु मेरी अवश्य मृत्यु हो जाएगी।'' राजा के इस वचन पर श्रद्धा न होने से रानी पुनः बोली कि वह कारण मुझे अवश्य कहो, वह कहने से अपन दोनों साथ में मर जायेंगे, तो अपनी दोनों की गति समान होगी, अतः भले ही वैसा हो। इस प्रकार स्त्री के दुराग्रह से राजा ने श्मशान में चिता खड़काई और रानी से कहा, हे रानी! चिता के आगे जाकर मरने को तत्पर होकर यह बात कहूँगा। तब ब्रह्मदत्त चक्री स्नान करके रानी के साथ गजारूढ होकर चिता के पास आए। उस वक्त नगरजन दिलगीर होकर सजल नेत्रों से उनको देखते रहे। उस समय चक्रवर्ती की कुलदेवी एक मेढा की, एक सगर्भा मेढी के रूप की विकुर्वणा करके चक्रवर्ती को प्रतिबोध देने के लिए वहाँ आई। यह राजा सर्व प्राणियों की भाषा जानता है, ऐसा जानकर गर्भवती मेढ़ी ने अपनी भाषा में मेढ़े का कहा कि- हे पति! इस यव के ढेर में से एक यव का पूला मुझे ला दो कि जिसके भक्षण से मेरा दोहद (मनोरथ) पूर्ण हो। मेढ़ा बोला यह जव का ढगला तो ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के घोड़े के लिए रखा है, यदि यह लेने जाऊँ तो मेरी मृत्यु हो जाए। मेढ़ी बोली- यदि तुम यह जव नहीं लाओगे तो मैं मर जाऊंगी। तब मेढ़े ने कहा कि- यदि तू मर जाएगी तो मैं दूसरी मेढ़ी लाऊँगा। मेढ़ी बोली- देखो यह ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती तो अपनी स्त्री के लिए अपना जीवन गँवा रहा है। इसका ही वास्तव
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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