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में स्नेह है तुम तो स्नेह रहित हो। मेढ़ा बोला यह राजा तो अनेक स्त्रियों का पति है, इस उपरांत भी एक स्त्री की वाणी से मरने को तैयार है, पर यह तो वास्तव में इसकी मूर्खता है। मैं कोई इसके जैसा मूर्ख नहीं हूँ, यदि वह राणी मर भी जाएगी, तो भी भवान्तर में इन दोनों का योग होना नहीं है। क्योंकि प्राणियों की गति तो कर्म के आधीन होने से भिन्न भिन्न मार्गवाली है। ऐसी मेढ़ा की वाणी सुनकर चक्रवर्ती विचार में पड़ गए कि अहो! यह मेढ़ा ऐसा कहता है तो मैं एक स्त्री से मोहित होकर किस लिए प्राण त्याग दूं?
(गा. 551 से 568) इस प्रकार विचारों से संतुष्ट होकर चक्री ने उस मेढ़े के गले में कनकमाला और पुष्पमाला पहनाई और मै तेरे लिए मरण नहीं पाऊँगा। ऐसा रानी से कहकर स्वयं स्वधाम गये और अखंड चक्रवर्ती पद की लक्ष्मी और राज्य पालन करने लगे। इस प्रकार अनेक प्रकार की क्रीड़ा करते ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को जन्म से लेकर सोलह वर्ष कम सात सौ वर्ष व्यतीत हुए।
(गा. 569 से 571) एक बार कोई पूर्व परिचित ब्राह्मण ने आकर कहा कि “हे चक्रवर्ती राजन्! जो भोजन आप करते हो, वही भोजन मुझे दो।' चक्री ने कहा, "हे द्विज! मेरा अन्न अति दुर्जर है। कभी चिरकाल में जर (पच) भी जाए तो भी वहाँ तक महा उन्माद पैदा करता है।" ब्राह्मण बोला अरे राजन! तू अन्नदान में भी कृपण है। अतः तुझे धिक्कार है। ऐसा उस ब्राह्मण के वचन सुनकर उस ब्राह्मण को कुटुम्ब सहित अपना भोजन खिलाया। रात्री को उस ब्राह्मण के शरीर में उस अन्नरूपी बीज में से कामदेव के उन्मादरूपी वृक्ष सैंकड़ों शाखा युक्त प्रकट हुआ। साथ ही अन्यों को भी कामदेव उत्पन्न हुआ। इससे वह ब्राह्मण पुत्र सहित माता, बहन और पुत्रवधु का संबंध भूलकर उनके साथ विषय सुख भोगने लगा। रात्री व्यतीत होने के बाद दिन उगा। तब ब्राह्मण और सर्व गृहजन लज्जा से एक दूसरे को मुख भी बता न सके। तब इस क्रूर राजा ने मुझे (कुछ मादक) पदार्थ खिलाकर हैरान किया है।
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)