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पूर्ण करके वे भी इसे बोलने लगे। यह सुनकर उत्तरार्ध जानकर उस रहट वाले मनुष्य ने राजा के समक्ष आकर वह श्लोक पूर्ण किया। तब चक्री ने पूछा इस उत्तरार्ध का कर्ता कौन है ?” तब उसने उन मुनि का नाम लिया। तब उस पुरुष को विपुल ईनाम देकर चक्री अति उत्कंठा से अभिनव वृक्ष उगा हो वैसे उन मुनि को देखने के लिए वहाँ आया । पश्चात् उन मुनि का वन्दन करके अश्रु से भीगे नयनों से पूर्व जन्म की तरह स्नेहयुक्त हो वह उनके समक्ष बैठा। तब कृपा रससागर उन मुनि ने धर्मलाभ रूप आशीर्वाद देकर राजा के अनुग्रह से के लिए धर्मदेशना दी।
(गा. 492 से 498)
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हे राजन्! इस असार संसार में कुछ भी सार नहीं है । मात्र कीचड़ में कमल तुल्य एक धर्म ही सारभूत है।" यह शरीर, यौवन, लक्ष्मी, स्वामित्व, मित्र और बांधव ये सभी पवन से कटी पताका के छोर की तरह चंचल है। हे राजन् ! जिस प्रकार 'तुमने पृथ्वी साधित करने के लिए बहिरंग शत्रुओं को जीत लिया, वैसे ही मोक्ष साधने के लिए अब अंतरंग शत्रुओं को भी जीत लो।' 'राजहंस जैसे जल को छोड़कर दूध को ग्रहण करता है, वैसे तुम भी अन्य सब को छोड़ कर यति धर्म ग्रहण करो ।' ब्रह्मदत्त बोला "हे बांधव! सद्भाग्य के योग से मुझे आपके दर्शन हुए हैं।” यह राज्यलक्ष्मी सब आपकी ही है । अतः रुचि अनुसार भोगों को भोगो। तप का फल भोग है । यह मिल जाने पर भी 'आपको अब किसलिए तप करना चाहिए ? स्वयमेव प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर भी कौन सा पुरुष प्रयत्न करता रहता है ?' मुनि बोले 'हे राजन्! मेरे घर भी कुबेर जैसी संपत्ति थी, परंतु भवभ्रमण का भय होने से उसका तृण की भांति त्याग किया है। हे राजन् ! पुण्य का क्षय हो जाने से तुम सौधर्म देवलोक से इस पृथ्वी पर आए हो । अब सर्व पुण्य का क्षय करके यहाँ से अधोगति में मत जाओ । आर्य देश में और श्रेष्ठ कुल में दुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त होने पर भी इससे अमृत द्वारा पग प्रक्षालन जैसे भोगों को क्यों भोगते हो ? स्वर्ग से च्यवकर हम पुण्य क्षीण हो जाने से जैसी तैसी कुयोनि में जा आए। तो भी हे राजन् ! अब
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( नवम पर्व )
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