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तब ‘वांजित्रों की ध्वनि के बहाने मानो स्वयं हर्ष से संगीत करता हो', ऐसे कांपिल्य नगर में ब्रह्मदत्त ने प्रवेश किया। वहाँ सर्व दिशाओं से आकर एकत्रित हुए बत्तीस हजार राजाओं ने भरतचक्री के समान उसका चक्रवर्ती के समान द्वादश वार्षिक अभिषेक करना प्रारंभ किया।
(गा. 463 से 470) पूर्व में जब ब्रह्मदत्त एकाकी विचरण करता था, उस वक्त कोई ब्राह्मण उसकी सहायता करके उसके सुख दुःख में सहभागी हुआ था। उस वक्त ब्रह्मदत्त ने उसे कहा था कि 'जब मुझे राज्य की प्राप्ति हो तब मुझे मिलना ऐसा संकेत किया होने से वह ब्राह्मण इस समय ब्रह्मदत्त के पास आया।' परंतु राज्याभिषेक की व्याग्रता के कारण उसका राजमहल के अंदर प्रवेश नहीं हो सका। इससे वह राजद्वार पर ही बैठ कर राज्य की सेवा करने लगा। राज्याभिषेक की प्रक्रिया संपूर्ण होने के पश्चात् ब्रह्मदत्त चक्री राजमहल से बाहर निकले। तब वह ब्राह्मण अपनी पहचान के लिए पुराने जूते की ध्वजा करके खड़ा था। अन्य ध्वजाओं से विलक्षण ध्वजावाले उस ब्राह्मण को देखकर चक्री ने छडीदार को पूछा कि 'अपूर्व ध्वजा करने वाला यह पुरुष कौन है ?' छड़ीदार ने कहा कि “बारह वर्ष से आपकी सेवा करने वाला यही पुरुष है।'' ब्रह्मदत्त ने उसे बुलाकर पूछा - यह क्या है ? वह ब्राह्मण बोला – “हे नाथ! आपके साथ घूम-घूम कर मेरे इतने उपानह (जूते) घिस गये, तथापि आपने मुझ पर कृपा नहीं की।' चक्रवर्ती उसे पहचान कर हंस दिये एवं सेवा करने लिए राजदरबार में आने के लिए रोक न लगाने की द्वारपाल को आज्ञा दी। पश्चात् उसे सभास्थान में बुलाकर कहा कि 'भट्ट जी। कहो तुमको क्या दूँ ?' ब्राह्मण बोला कि 'मुझे भोजन दो।' चक्री ने कहा कि ऐसा क्या मांगा? कोई देश मांग लेते। तब जिह्वालम्पट ब्राह्मण बोला कि ‘राज्य का फल भी भोजन ही तो है, अतः मुझे आपके घर से आरंभ करके सम्पूर्ण भरतक्षेत्र में घर घर भोजन और एक दीनार मिले ऐसा हुक्म करें।' यह सुनकर चक्री ने विचार किया कि 'इस ब्राह्मण की योग्यता, ऐसी ही लगती है। तब उसे अपने घर से पहले
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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