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होकर बिल से बाहर निकलता है, वैसे रण में सारभूत ऐसे सर्व बल से वह नगर से बाहर निकला। उसी समय ब्रह्मराजा की स्त्री चुलनी को अत्यन्त वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने पूर्णा नामकी प्रवर्तिनी के पास व्रत लिया और अनुक्रम से मोक्ष में गई। इधर रणभूमि में जैसे बड़ा मगर नदी के छोटे मगरों को मार डालता है, वैसे ही दीर्घराजा के अग्र सुभटों को ब्रह्मदत्त के सुभटों ने मार डाला। यह देख क्रोधद्वारा उच्च भृकुटी से भयंकर मुख करता दीर्घ वराह की तरह शत्रु के पीछे दौड़ा और प्रहार करने लगा। ब्रह्मदत्त का पद दल, रथ और सवार प्रमुख सैन्य को नदी के प्रवाह समान वेगवाले दीर्घराजा ने बिखेर दिया। उस वक्त क्रोध से लाल नेत्र करता हुआ ब्रह्मकुमार हाथी के समान गर्जना करता हुआ दीर्घराजा के सामने स्वयं युद्ध करने के लिये आया। प्रलयकाल के समुद्र के समान कल्लोल करते हुए कल्लोल को तोड़े वैसे दोनों बलवान वीर एक दूसरे के अस्त्रों को तोड़ने लगे। उस समय सेवक की तरह अवसर को जानकर कांति को प्रसारता और दिशाओं के समूह को अर्थात् सर्व दिशाओं में रहे राजाओं को जीते वैसा चक्ररत्न ब्रह्मदत्त के समीप में उत्पन्न हुआ। जिससे तत्काल ब्रह्मकुमार ने उस चक्र से दीर्घराजा के प्राण को हर लिया। बिजली को चंदन मारने के लिए अन्य साधनों की क्या जरूरत है। उस समय इस चक्रवर्ती की जय हो, ऐसे चारणभाट की तरह बोलते देवताओं ने ब्रह्मदत्त पर पुष्पवृष्टि की। पश्चात् पिता-माता और देवताओं की तरह पुरजनों के समक्ष ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने अमरावती में इंद्र प्रवेश करे, वैसे कांपिल्यपुर में प्रवेश किया। उसके पश्चात् अपनी पूर्व परिणीत सर्व स्त्रियों को वहाँ बुला लिया। उन सर्व स्त्रियों में कुरुमती को स्त्रीरत्न रूप से स्थापित किया।
(गा. 436 से 448) अन्यदा भरतक्षेत्र को साधने के लिए ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती चक्र के पीछे अगणित सैन्य सहित चल दिये।
(गा. 449) पूर्व में नृपश्रेष्ठ श्री ऋषभदेव जी ने राज्य त्याग कर दीक्षा लेते समय सर्व पुत्रों में बड़े पुत्र भरत को मुख्य राज्य दिया था, तथा अन्य निन्यानवें
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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