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तब कुमार ने विविध विवाह मंगल से उसके साथ विवाह किया। और मंत्री पुत्र वरधनु भी सुबुद्धि मंत्री की कन्या नंदा को परणा। वहाँ रहते हुए वे दोनों वीर शक्ति से पृथ्वी पर प्रख्यात हुए।
(गा. 421 से 426) बहुत दिन के पश्चात् वे वाराणसी नगरी में आए। ब्रह्मदत्त को आया सुनकर वाराणसी का राजा कटक ब्रह्मा के समान गौरव से सामने आया
और उनको अपने घर ले गया। अपनी कटकवती नाम की कन्या और साथ ही मूर्तिमान् जयलक्ष्मी जैसी चतुरंग सेना ब्रह्मदत्त को प्रदान की। उसको वहाँ आया जानकर चंपानगरी का राजा करेणदत्त, धनुमंत्री एवं अन्य भगदत्त आदि राजा भी वहाँ आए। पश्चात् भरत चक्रवर्ती ने जैसे सुषेण को सेनापति बनाया था, वैसे ही वरधनु को सेनापति बनाकर दीर्घराजा को कंटीलें पंथ (मृत्यु मार्ग) में भेजने के लिए प्रयाण किया। उस समय दीर्घराजा के शंख नाम के दूत ने आकर कटक राजा को कहा कि “दीर्घराजा के साथ तुम्हारी बाल्य मैत्री है, वह छोड़ देना उपयुक्त नहीं है।" यह सुनकर कटक राजा बोला कि- हे दूत! पूर्व में ब्रह्मराजा सहित हम पांच सहोदर जैसे मित्र थे। ब्रह्म राजा के स्वर्ग में जाने के बाद उसका पुत्र बालक होने से हमने उनका ही राज्य दीर्घ राजा को सौंपा। तब वह तो मानो उसका ही राज्य हो, वैसे उसे भोगने लगा, इसलिए इस दीर्घ को धिक्कार हो, क्योंकि संभालने को दिये पदार्थ को तो डाकण भी खाती नहीं है। ब्रह्मराजा के पुत्र रूप धरोहर के संबंध में दीर्घराजा ने जो अतिपाप आचरण किया है, वैसा पाप कोई चांडाल भी नहीं करे। इसलिए ‘हे शंख! तू जाकर तेरे दीर्घ राजा से कह कि ब्रह्मदत्त सैन्य लेकर आ रहा है, इसलिए उसके साथ युद्ध कर अथवा भाग जा।' इस प्रकार कह कर दूत को विदा किया।
(गा. 427 से 435) ब्रह्मदत्तकुमार अविच्छिन्न रूप से प्रयाण करते हुए कांपिल्यपुर के पास आ पहुँचे। आकाश की सहायता द्वारा सूर्य के साथ मेघ की तरह दीर्घराजा ने उसके साथ युद्ध करने की इच्छा की और बड़ा सर्प जैसे दंड से आक्रान्त
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)