________________
के जैसे खींचकर अपनी सूंड में पकड़ लिया। जिससे शरणार्थी के समान वह कन्या दीन नेत्रों से पुकार करने लगी। यह सुनकर सर्वत्र दुःख बीज के अक्षर जैसा हाहाकार मच गया। उस वक्त अरे मातंग! तू वास्तव में मातंग (चांडाल) ही है, नहीं तो स्त्री को पकडते तुझे लज्जा क्यों नहीं आती? ऐसा कहता हुआ ब्रह्मदत्त उसके सामने गया, तो हाथी उस कन्या को छोड़कर ब्रह्मदत्त के सामने दौड़ा। “ब्रह्मदत्त एकदम उछलकर उसके दांतरूपी निसरणी पर पैर रखकर लीलामात्र में तो उसके ऊपर चढ़ गया, और आसन लगा कर बैठ गया।" फिर वाक्य से, पैर से, अंकुश से और विज्ञान से कुमार ने उस हाथी को योगी के समान योग के द्वारा उसे वश में कर लिया। लोगों ने ठीक किया, ठीक किया, ऐसा बोलते हुए जयनाद किया। तब ब्रह्मदत्त ने हथिनी की तरह उस हाथी के खूटे के पास ले जाकर बांध दिया। उस वक्त वहाँ राजा आया और कुमार को देखकर विस्मित हुआ? क्योंकि उसकी आकृति और पराक्रम किसको विस्मित नहीं करें ? राजा बोला - यह पुरुष कौन है? क्या गुप्त रीति से सूर्य और चंद्र तो नहीं आए है ? ऐसा विचार करते ही रत्नवती के काका ने उनके पास जाकर सर्व हकीकत कह सुनाई। तब अपनी आत्मा को पवित्र मानने वाले राजा ने जैसे चंद्र को दक्ष प्रजापति ने दिया, वैसे ही उत्सव पूर्वक अपनी कन्याएँ ब्रह्मदत्त को दीं। उनको परणकर वह सुखपूर्वक वहाँ रहने लगा।
_ (गा. 410 से 420) एक बार एक स्त्री ने कुमार के पास आकर मस्तक पर वस्त्र का पल्ला फिराकर कहा कि “हे वत्स! इस नगरी में लक्ष्मी से कुबेर भंडारी जैसा वैश्रवण नामक एक धनाढ्य श्रेष्ठी रहता है, उसके समुद्र की लक्ष्मी जैसे श्रीमती नामकी एक पुत्री है।' राहू के पास से चंद्रकला के समान तुमने जब से उस राजकन्या को उन्मत्त हाथी से छुड़ाया है, तब से वह बाला तुम्हारा ही अभिलाष करती हुई तरस रही है। इसलिए जैसे उस राजकन्या को हाथी से बचाया है, वैसे ही उस बाला को कामदेव से भी बचाओ, तथा जिस तरह उस का हृदय ग्रहण किया है, वैसे ही उसकी पाणि को भी ग्रहण करो।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
[31]