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तब उसने कहा कि आपके बंधु का हनन करने वाले ब्रह्मदत्त यहाँ आने वाले हैं, वे आप दोनों के भर्तार हों, क्योंकि मुनि की वाणी अन्यथा नहीं होती। हमने उस बात को स्वीकार किया। तब, पुष्पवती ने आपको आने की संज्ञा से रसभवृत्ति (गलती) से भूल कर रक्त के बदले श्वेत ध्वजा दिखा दी। इससे आप हमको छोड़कर चले गये। हमारे विपरीत भाग्य योग से आप पधारे नहीं। सर्वत्र आपको ढूँढ़ने के लिए घूमते हुए हमने किसी भी स्थान पर आपको देखा नहीं। इससे निर्वेद प्राप्त कर हम यहाँ पर आकर रहने लगी। हे स्वामिन्! “आज हमारे पुण्य से आप यहाँ पधारे हो।” पूर्व में पुष्पवती के कथनानुसार हमने आपका वरण कर ही लिया है। अतः हमारी गति आप एक ही हो। अब हमारा पाणिग्रहण करो। ऐसे उनके प्रेम से भरे वचनों को सुनकर ब्रह्मदत्त ने गांधर्व विधि से उनको परणा। “सरिताओं का पात्र जैसे समुद्र होता है, वैसे स्त्रियों का पात्र भोगी पुरुष है।"
(गा. 388 से 392) गंगा और पार्वती के साथ महादेव के तुल्य उन दोनों स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हुए ब्रह्मदत्त ने वह रात्री वहाँ आनंद में निर्गमन की। इसके पश्चात् उन दोनों से कहा कि 'जब तक मुझे राज्यलाभ न हो, तब तक तुम दोनों को पुष्पवती के साथ रहना है।' ऐसा कहने पर, उन दोनों को उसके पास जाने की आज्ञा दी। उन्होंने वैसा करना स्वीकार किया। इतने में वह लोक और मंदिर आदि सर्व गंधर्वनगर की भांति तत्काल अदृश्य हो गये। ब्रह्मदत्त तापसों के आश्रम में रखी रत्नवती को लेने गया। वहाँ वह दिखाई नहीं दी। परंतु वहाँ एक सुंदर आकृति वाला एक पुरुष था। उससे उसने पूछा कि 'हे महाभाग! कल यहाँ एक दिव्य वस्त्र को धारण करने वाली
और रत्नाभूषण से शोभित किसी स्त्री को तुमने देखा है। उसने कहा कि 'हे नाथ! हे नाथ! ऐसा पुकारती, रूदन करती एक स्त्री यहाँ मुझे दिखाई दी थी। हमारे यहाँ की स्त्रियों ने उसे पहचान कर उसको यहाँ से ले जाकर उसके काका को सौप दी है। उससे पूछा कि क्या आप उसके पति हैं ? ब्रह्मदत्त ने हाँ कहा। तब वह पुरुष ब्रह्मदत्त को आग्रहपूर्वक रत्नवती के काका
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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