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गिरा हुआ एक बाण मेरे हाथ में आया है। उसके ये वचन सुनकर “अवश्य ही वरधनु मारा गया है, इस प्रकार चिंता करते हुए ब्रह्मदत्त की शोक जैसी ही अंधकारयुक्त रात्रि पसार हो गई ।” रात्रि के चतुर्थ प्रहर में वहाँ चोर आए। वे कामदेव से जैसे प्रवासी स्वस्थान पर चले जाते हैं, वैसे ही जैसे प्रवासी स्वस्थान पर चले जाते हैं, वैसे ही वे कुमार के बल से भग्न होकर भाग गये।
(गा. 356 से 364)
दूसरे दिन उस ग्रामाधीश को लेकर अनुक्रम से कुमार वहाँ से राजगृही पुरी में आए। वहाँ नगर के बाहर तापस के आश्रम में रत्नवती को छोड़कर उसने नगर में प्रवेश किया। नगर में घुसते ही एक हवेली के झरोखे में बैठी मानो साक्षात् रति और प्रीति हो ऐसी दो नवयौवना स्त्रियां उसे दिखाई दीं। वे स्त्रियाँ कुमार को देखते ही तुरंत ही बोली कि “ अरे भद्र! उस समय प्रेमीजन को छोड़कर चले जाना क्या आपको योग्य लगा ?" ब्रह्मदत्त बोला कि "मेरे प्रेमी जन कौन ? मैंने उनका कब त्याग किया? मैं कौन हूँ, और तुम दोनों कौन हो ?" वे बोली, “हे नाथ! प्रसन्न हो जाओ और यहाँ पधारो और विश्राम लो।” उनके ऐसे मधुर आलाप से ब्रह्मदत्त मन से उनके घर में गया। ब्रह्मदत्त के थोड़ी देर विश्राम कर लेने के बाद उसने स्नान और भोजन कराया। इसके बाद वे दोनों अपनी सत्यकथा कहने लगी ।
(गा. 365 से 369)
“विद्याधरों का निवास स्थान, सुवर्णमय शिलाओं से निर्मल और मानो पृथ्वी का तिलक हो ऐसा वैताढ्य नाम का पर्वत है। उसके दक्षिण श्रेणी में एक शिवमंदिर नाम के नगर में अलकापुरी में कुबेर के समान ज्वलनशिख नामक राजा है । मेघ को विद्युत की भांति उस विद्याधरपति राजा को कांति से दिशाओं के मुख को प्रकाशित करने वाली विद्युतच्छिखा नाम की प्रिया है । उनके नाट्योन्मत्त नाम का पुत्र और उससे छोटी खंडा और विशाखा नाम की हम दो प्राणप्रिय पुत्रियाँ हैं। एक बार अपने महल में हमारे पिता उनके अग्निशिख नामक मित्र के साथ वार्तालाप कर रहे
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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