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होने पर मैंने वर की प्राप्ति के लिए इस उद्यान में एक यक्ष की बहुत प्रकार से आराधना की क्योंकि 'स्त्रियों को पतिप्राप्ति सिवा अन्य कोई भी मनोरथ होता नहीं है। ‘भक्ति से संतुष्ट हुए यक्ष ने मुझे वरदान दिया कि ब्रह्मदत्त नामक चक्रवर्ती तेरा भर्ता होगा। जो सागर और बुद्धिल श्रेष्ठी के मुर्गे को बराबर जोड़ी देनेवाला श्रीवत्स का चिह्न वाला और मित्र के साथ रहने वाला होगा। वही ब्रह्मदत्त है ऐसे तू पहचान जाना। साथ ही मेरे इस मंदिर में ही तेरा ब्रह्मदत्त से मिलाप होगा। यक्ष के इन वचनों के प्रमाण से आप मुझे यहाँ मिले हो। इसलिए हे सुंदर! वे ब्रह्मदत्त तुम्ही हो। इस लिए यहाँ पधारो। और जल के प्रवाह जैसे आपके संग से चिरकाल से हुई विरहाग्नि से पीड़ित हुई मुझे शांत करो। ब्रह्मदत्त ने वैसा करना अंगीकार किया। पश्चात् उसके अनुराग की तरह उसे भी रथ में बैठाकर आगे जाते जाते यहाँ से कहाँ जायेंगे? ऐसा उसने पूछा। तब वह बोली कि 'यहाँ मगधपुर में धनावह नाम के मेरे काका रहते हैं, वे अपना बहुत सत्कार करेंगे, अतः वहाँ चले। इस प्रकार रत्नावती के कथनानुसार ब्रह्मदत्त ने मंत्रीपुत्र को सारथी बनाकर उस ओर घोड़े हंकाये।
(गा. 327 से 341) क्षणमात्र में तो कौशांबी के प्रदेश का उल्लंघन करके ब्रह्मदत्त आदि मानो यमराज का स्थान हो, ऐसी भयंकर अटवी में आ पहुँचे। वहाँ सुकंटक और कंटक नाम के दो चोर जो सेना के नायक थे, उन्होंने जैसे हाथी श्वान को रोकता है, वैसे ब्रह्मदत्त को रोका, और मानों कालरत्रि के दो पुत्र हो, वैसे वे सैन्य सहित चोर नायकों ने आकाश में मंडप रचे वैसे बाणों से उनको आच्छादन कर दिया। उस समय जैसे मेघ जलधारा से दावानल का निषेध कर देता है, जैसे धनुष धारण किए ब्रह्मदत्त ने गर्जना करके बाणों द्वारा उन चोरों की सेना को निषेधा। कुमार के बाणों की वर्षा से वे दोनों चोर नायक सैन्य लेकर भाग गये। क्योंकि सिंह प्रहार करे तब हरिण कैसे टिक सके ? मंत्रीपुत्र ने कुमार को कहा कि 'स्वामिन्! युद्ध करके थक गये होंगे, अतः दो घड़ी इस रथ में ही सो जाओ। हाथी जैसे हथिनी के साथ पर्वत
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)