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"इस हार के साथ जो लेख था, उसका प्रत्युत्तर लेने वह आई थी।' तब मैंने पूछा कौन ब्रह्मदत्त? तब वह बोली 'इस नगर में एक सेठ की रत्नवती नामकी पुत्री हैं। परंतु वह रूपान्तर करके कन्या रूप लेकर मानो रति ही पृथ्वी पर आई हो ऐसी रूपवंत है। जिस दिन सागरदत्त और बुद्धिल के मुर्गे का युद्ध था, उस समय उसने ब्रह्मदत्त को देखा था। तभी से कामात होकर तडफती वह बाला कहीं भी शांति नहीं पा रही है। और ब्रह्मदत्त ही मेरा शरण हो, ऐसा बोलती रहती है। एक बार उसने स्वयं लेख लिख कर हार के साथ मिलाकर मुझे दिया है और कहा कि यह ब्रह्मदत्त को भेज दो' तब मैंने दासी के साथ वह लेख भिजवाया और उसके समाचार देकर उसे आश्वासन दिया। इस प्रकार उसकी बात सुनकर मैंने भी आपके नाम का प्रतिलेख देकर उसे विदा दी थी। वरधनु से ऐसी बात सुनकर ब्रह्मदत्त भी दुर्वार काम के ताप से पीड़ित हो गया और मध्याह्न सूर्य की किरणों से तप्त हाथी के समान वह सुख से रह नहीं सका।
(गा. 305 से 326) इसी समय में कौशांबी नगरी के स्वामी के पास दीर्घराजा के भेजे हुए सुभट नष्ट हुए शल्य की तरह ब्रह्मदत्त और वरधनु की खोज में आए। कौशांबी के राजा की आज्ञा से यहाँ भी दोनों की खोज होने लगी। इसकी खबर पड़ते ही सागरदत्त ने उनको निधान के जैसे भूमिगृह में छिपा दिया। उनकी वहाँ से बाहर जाने की इच्छा होने पर उसी रात्री में रथ में बिठाकर उनको कुछ दूर ले गया। इसके पश्चात् लौटकर कर आ गया। दोनों जने वहाँ से आगे चले। वहां नंदनवन में देवी के समान उस नगरी के उद्यान में एक सुन्दर स्त्री उनको दिखाई दी। उन दोनों को देखकर 'तुमको आने में इतनी देर क्यों लगी? ऐसा उसने आदर से पूछा। तब उन दोनों में विस्मित होकर पूछा भद्रे! हम कौन हैं? और तू हमको किस प्रकार पहचानती हैं ? वह बोली- “इस नगरी में धनप्रभव नाम का कुबेर का सहोदर जैसा धनाढ्य श्रेष्ठी है। उनके आठ पुत्र होने के बाद बुद्धि के आठ गुण उपरांत विवेकलक्ष्मी की प्राप्ति होती है, वैसे मैं एक पुत्री हुई हूँ। उत्कट यौवनवती
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)