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एक दिन मैंने उस रक्षक के पास मेरी माता को कहलाया कि 'आपके पुत्र का मित्र कौंडिय महाव्रतधारी हुआ है, वह आपका अभिनन्दन करता है। दूसरे दिन मैं स्वयं माता के पास गया। उनको वह गुटिका और बीजोरे का फल दिया। वह फल खाते ही मेरी माता संज्ञा रहित हो गई। तब कोतवाल ने उनको शरीर का संस्कार करने के लिए सेवकों को आज्ञा दी। उस समय उनके पास जाकर मैंने कहा कि 'अरे राजपुरुषों! यदि इस समय इस स्त्री का मृत संस्कार करोगे तो राजा का बड़ा अनर्थ हो जाएगा। ये सुनकर वे चले गये। पश्चात् मैंने उस पुररक्षक को कहा 'यदि तू मुझे सहायता करे तो सर्वलक्षणवाली इस स्त्री के शव के द्वारा मैं एक मंत्र साधूं।' पुररक्षक ने ऐसा करने को हां कहा। तब उसके साथ सांयकाल में माता को दूर शमशान में ले गया। वहाँ माया कपट से शुद्ध स्थंडिल (जमीन) पर मैंने मंडल आदि बनाये। बाद में नगरदेवी को बलिदान देने के लिए कुछ लेने के लिए उस आरक्षक को भेजा। उसके जाने के पश्चात् मैंने मेरी माता को दूसरी गुटिका दी। तो तत्काल निद्रा का छेद हुआ हो वैसे वह उबासी खाती खाती सचेत हो गई। प्रथम तो वह रुदन करने लगी। तब मैंने अपनी पहचान देकर उनको शांत किया। तब मैं कच्छ ग्राम में रहते मेरे पिता के मित्र देवशर्मा के घर उनको ले गया। वहाँ से निकलकर अनेक स्थानों पर परिभ्रमण करता हुआ और आपको ढूँढता-ढूँढता यहाँ आया हूँ। सद्भाग्य से मेरे पुण्य की राशि के समान आप मुझे यहाँ दृष्टिगत हुए। इस प्रकार अपना सर्व वृत्तांत कहने के पश्चात् वरधनु ने पूछा “हे बंधु! मुझ से जुदा होने के बाद आप कहाँ गये और किस प्रकार से कहाँ रहे ? वह कहो। तब ब्रह्मदत्त ने अपनी सर्व हकीकत उसे निवेदन की। दोनों ही मित्र आपस भी इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि इतने में किसी ने आकर उन को कहा कि — इस गांव में दीर्घ राजा के सुभट आए हैं। वे तुम्हारे समान रूप की आकृतियाँ बताकर गांव के लोगों को पूछ रहे हैं कि इसी आकृति वाले दो पुरुष यहाँ आए हैं क्या? उनकी बात सुनकर ही मैं इधर आ रहा हूँ। वहाँ तो आप दोनों को वैसी ही आकृतिवाले मैंने देखा। अब आपको जैसा रुचे वैसा करो। ऐसा कहकर वह पुरुष चला गया। ब्रह्मदत्त और मंत्री पुत्र दोनों
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)