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के नितंब पर सो जाता है, वैसे ही ब्रह्मदत्त रत्नवती के साथ सो गये। अनुक्रम से रात्रि प्रभात रूप में परिणत हुई तब वे एक नदी के समीप में आए। तब वहाँ घोड़े भी शांत होने से स्थिर हो गये और कुमार भी जागृत हुए। जगकर देखते हैं तो मंत्रीकुमार रथ के अग्रभाग में दिखाई नहीं दिये। तब वह जल लेने गया होगा। ऐसा सोचकर उसने बार-बार खूब आवाज लगाई, परंतु वापिस कोई जवाब मिला नहीं। इधर रथ के अग्रभाग को भी पंकिल देखा। तभी अरे मैं तो छला गया। ऐसा विलाप करता हुआ रथ में ही मूर्छित होकर निढल हो पड़ा। थोड़ी देर में संज्ञा पाकर वह बोला अरे मित्र वरधनु तू कहां गया? इस प्रकार आक्रांत करते हुए ब्रह्मदत्त को रत्नवती समझाने लगी। हे नाथ! आपके मित्र वरधनु मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए, ऐसा निश्चय ही समझना। इसलिए वाणीमात्र से भी उनका अमंगल करना उचित नहीं है। वे अवश्य ही कार्य के लिए किसी स्थान पर गये होंगे, क्योंकि उत्तम मंत्री स्वामी को पूछे बिना भी स्वामी के कार्य के लिए चले जाते हैं। आप की भक्ति से ही रक्षण किये गए वे अवश्य ही लौट आयेंगे, क्योंकि सेवकों को स्वामी भक्ति का प्रभाव ही कवच रूप होता है। फिर हम जब स्थानक पर पहुंच जायेंगे, तब मनुष्यों को भेजकर उनकी गवेषणा करायेंगे। अभी इस यमराज जैसे वन में अधिक रूकना योग्य नहीं है। ऐसे रत्नवती के कहने पर ब्रह्मदत्त ने अश्वों को हँकारे। थोड़े ही समय में मगध देश की भूमि की सीमा के गांव में आ पहुँचे। अश्व को और पवन को क्या दूर है?
(गा. 342 से 355) उसी गाँव का नायक उस समय सभा में बैठा था। वह ब्रह्मदत्त को देखते ही अपने घर पर ले गया। महापुरुष अनजान हो तो भी मात्र मूर्ति के दर्शन से ही पूजे जाते हैं। ग्रामाधीश ने पूछा कि आप शोकग्रस्त कैसे हो? ब्रह्मदत्त ने कहा कि मेरा एक मित्र चोर लोगों के साथ युद्ध करते करते कहीं चला गया है। ग्रामाधीश ने कहा कि सीता की खोज में जैसे हनुमान गये थे, वैसे ही मैं आपके मित्र को खोजकर ले आऊँगा। इस प्रकार कहकर वह ग्रामाधीश उस महाटवी में सर्वत्र घूम आया, उसने वापस आकर कहा, सम्पूर्ण वन में कोई भी मनुष्य दिखाई नहीं दिया। मात्र प्रहार करते समय
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)