Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 07
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 24
________________ को ग्रसित करने के लिए अग्नि सात जिह्वावाला होने पर भी कोटि जिह्वावाला हो गया। उस वक्त यह क्या हो गया? ऐसा ब्रह्मदत्त ने मंत्रीपुत्र को पूछा। तब उसने चुलनी देवी को दुष्चेष्टित संक्षेप में कह सुनाया। इसके पश्चात् कहा कि मृत्यु के कर समान इस स्थान में से तुम्हारा आकर्षण करने के लिए मेरे पिता ने यहाँ तक एक सुरंग बना दी है। जो कि उनकी दानशाला तक जाती है। यहाँ एड़ी के प्रहार से उसे खोलकर विवरद्वार से योगी के जैसे उसमें आप प्रवेश करें। तब वाजिंत्र के पुट के समान एड़ी के प्रहार से पृथ्वी का पुट भेद कर छिद्र में डोरे के समान ब्रह्मदत्त मित्र के साथ उस सुरंग में चला। सुरंग के अंत में धनुमंत्री ने दो अश्व तैयार करके रखे हुए थे। सुरंग से बाहर निकल कर राजकुमार और मंत्रीपुत्र रेवंत की शोभा का अनुसरण करते हुए अश्व पर आरूढ हुए। वे अश्व पंचमधारा से एक कोश के समान पचास योजन तक एक श्वांस में चले। जब वे खड़े हुए उसी समय उच्छ्रवास लेते ही वे मृत्यु को प्राप्त हो गये। तब वे अपनी रक्षा के लिए चलते हुए अनुक्रम से कोष्टक नामक गांव के पास कठिनाई से आ पहुंचे। वहाँ ब्रह्मदत्त ने मंत्रीकुमार से कहा, मित्र वरधनु! अभी परस्पर स्पर्धा करती हो, वैसी क्षुधा और तृषा दोनों ही मुझे अति पीड़ित कर रही है। ‘एक क्षण राह देखो' ऐसा कहकर मंत्रीपुत्र ने क्षौर कराने की इच्छा से गांव में से एक नापित को बुलाया। मंत्रीपुत्र के विचार से ब्रह्मदत्त ने भी उस नाई से वपन कराया (केश कटवाये)और मात्र शिखा ही रखकर उसने पवित्र कषाय वस्त्र धारण किये। इससे संध्या से ढ़के सूर्य के समान वह दिखाई देने लगा। तत्पश्चात् वरधनु प्रदत्त ब्रह्मसूत्र उसने कंठ में धारण किया, जिससे ब्रह्मराजा के पुत्र ब्रह्मदत्त ने ब्रह्मपुत्र (ब्राह्मण) के सादृश्य प्राप्त हुए। ब्रह्मदत्त के वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का लांछन था। उसे मंत्रीपुत्र ने बादलों से सूर्य समान वस्त्र से ढंक दिया। (गा. 151 से 176) इस प्रकार ब्रह्मदत्त ने सूत्रधार के समान और मंत्रीपुत्र वरधनु ने विदूषक के समान सर्व वेश परिवर्तन कर लिया। पश्चात् पूर्णिमा को सूर्य त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व) [13]

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