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मार डाला! अरे रे! मुझे धिक्कार हो इस प्रकार वह अपनी आत्मा की निंदा करने लगा। वहाँ से आगे जाते हुए कुमार ने देवलोक से पृथ्वी पर उतरा हुआ नंदनवन के जैसा एक रमणीय उद्यान देखा।
(गा. 212 से 220) उसमें प्रवेश करके सातलोक की लक्ष्मी का रहस्य एकत्रित हुआ हो, ऐसा एक सात भूमिकावाला प्रासाद उसे दिखाई दिया। ब्रह्मदत्त उस आकाश तक ऊँचे महल पर चढ़ा। तब उसमें सुंदर बदन वाली मुख पर हाथ रखकर बैठी एक खेचरी जैसी कन्या उसे दिखाई दी। कुमार उसके पास आकर विमल वाणी से बोला कि “तू कौन है ? यहाँ अकेली क्यों रहती है ? और तेरे शोक का क्या कारण है? भयभीत हुई वह बाला गद्गद् स्वर में बोली कि मेरा वृत्तांत क्या बताऊँ ? बहुत लंबा है, अतः पहले आप कहें कि आप कौन हैं ? और यहाँ कैसे आए हैं ? ब्रह्मदत्त बोला- पांचाल देश के ब्रह्मराजा का मैं ब्रह्मदत्त नामका कुमार हूं। ऐसे वचन सुनते ही वह रमणी हर्ष से खड़ी हो गई। उसके लोचन रूप अंजली में से झरते आनंदाश्रु के जल से उसने कुमार को चरण में पाद्य (चरणोदक) दिया। तब हे कुमार! समुद्र में डूबते जहाज की भांति मुझ अशरण बाला के शरण रूप आप यहाँ पधारे हो। ऐसा कहकर वह बाला रूदन करने लगी। कुमार ने पूछा 'तुम रो क्यों रही हो? वह बाला बोली मैं आपके मामा पुष्पचूल की पुष्पवती नामकी पुत्री हूँ। अभी मैं कन्या ही हूं और मेरे पिता ने आपको संबंध करके दी हुई है। अन्यदा विवाह से उन्मुख हुई मैं हंसी से समान उद्यान की वापिका के तट पर क्रीड़ा करने गई थी। इतने में जानकी को रावण के समान नाट्योन्मत्त नामक एक दुष्ट विद्याधर मेरा हरण करके यहाँ ले आया। परंतु वह मेरी दृष्टि को सहन नहीं कर सका। इससे सूर्पणखा के पुत्र की तरह विद्यासाधन के लिए यहाँ से जाकर एक वंशजालिका में धूम्रपान करता हुआ उर्ध्व पैर करके रहा हुआ है। उस विद्याधर को आज विद्या सिद्ध होने वाली है। विद्यासिद्ध होने के पश्चात् शक्तिमान हुआ वह मुझसे विवाह करने का प्रयत्न करेगा। यह सुनकर कुमार ने स्वयं उसका वध कर दिया यह वृत्तान्त उसे कह सुनाया। यह श्रवण कर उस रमणी को अपार हर्ष हुआ। पश्चात् परस्पर
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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