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ब्रह्मदत्त ने किसी हाथी का मूत्र और विष्ठा देखी। तब कुशाग्र मतिवाले उसने विचार किया कि यहाँ अवश्य ही कोई हाथी होना चाहिए। तब तापसों ने उसे बहुत रोका। तथापि वह हाथी के पदचिह्नों से पांच योजन तक चला गया। वहाँ एक पर्वत जैसा विशालकाय हाथी उसे दिखाई दिया। तब मल्ल जैसे मल्ल को बुलाता है, वैसे ही उस नरहस्ती कुमार ने पर्यंकबद्ध होकर उग्र गर्जना करके उस उन्मत्त हाथी को निःशंक रूप से बुलाया। तब क्रोध से सर्व अंगों को घुमाता, सूंढ को संकुचित करता हुआ, कर्ण को निश्चल करता हुआ और ताम्रमुख करके वह हाथी हस्तिकुमार की ओर दौड़ा आया। जब वह नजदीक आया, तब कुमार ने उसे बालक की तरह छेड़ने के लिए बीच में ही अपना उत्तरीय वस्त्र डाल दिया। मानों आकाश में से मेघ खंड गिरा हो, वैसे उस वस्त्र को गिरा देख कर क्रोधी वह गजेन्द्र उस वस्त्र पर दंतशूल से प्रहार करने लगा। पश्चात् वादी जैसे सर्प को खिलाता है, वैसे ही राजकुमार ने अनेक प्रकार की चेष्टाओं से उस हाथी को लीला करके खिलाया।
___ (गा. 199 से 211) उस समय मानो ब्रह्मदत्त का मित्र हो वैसे अटवी में अंधकार सहित बरसात हुयी। इस जलधारा से हाथी उपद्रव करने लगा। इससे तत्काल वह गजेन्द्र विरस शब्द करता हुआ मृग की तरह भाग गया। ब्रह्मदत्त कुमार पूरे दिन दिग्मूढ होकर उसके पीछे घूमता-घूमता एक नदी में गिरा। परन्तु मूर्तिमान आपत्ति हो वैसी उस नदी ने कुमार को सहज में ही पार करवा दिया। उसे किनारे पर एक वीरान नगर दिखाई दिया, उसमें प्रवेश करते समय कुमार ने एक वंशजालिका देखी। उसमें उत्पात कर रहे केतु और चंद्र हों, वैसे एक खड्ग और म्यान उसे दिखाई दिए। तब शस्त्र के कौतुकी कुमार ने उन दोनों को लेकर खड्ग द्वारा कदली की तरह उस वंशजालिका को छेद डाला। इतने में वंशजाल के अंदर जिसके ओष्टदल फरक रहे हों, ऐसा एक मस्तक स्थलकमल के समान कटकर पृथ्वी पर पड़ा हुआ, उसे दिखाई दिया। जब कुमार ने अच्छी तरह तलाश की तब विदित हुआ कि उस वंशजाल में स्थित और धूम्रपान करते किसी निरपराधी मनुष्य को मैंने
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)