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क्या काम है ? इसलिए आप यहीं पर रहकर दानशाला आदि में धर्माचरण करो, अन्य स्थान पर जाना नहीं, क्योंकि उत्तम वृक्षों से जैसे वन की शोभा है, वैसे ही आप जैसे पुरुषों से ही राज्य की शोभा है।
___ (गा. 145 से 150) दीर्घ राजा के इस प्रकार कहने से सद्बुद्धि निधान धनुमंत्री ने गंगा नदी के तीर पर मानो धर्म का महासत्र (दानशाला) हो वैसी एक पवित्र दानशाला का मंडप बनवाया। एवं स्वयं ने वहां रहकर गंगा के प्रवाह के समान हमेशा राहगीरों को अन्नपान देकर अविच्छिन्न प्रवाह का प्रर्वतन किया। दान, मान और उपकार द्वारा विश्वास योग्य पुरुषों द्वारा दो कोश दूर से सुरंग बनवाकर लाक्षागृह तक पहुँचा दी। तत्पश्चात् स्नेह रूप आर्द्रवृक्ष में जल समान गुप्त लेख लिखकर उसने यह वृत्तांत पूष्पचूल राजा को ज्ञात कराया। यह वृत्तांत जानकर बुद्धिमान् पुष्पचूल राजा ने अपनी दुहिता के स्थान पर मानो हंसी की जगह बगुली की तरह एक दासी को भेज दी। पीतल पर चढ़ाए स्वर्ण रस जैसी उस दासी को पुष्पचूल की पुत्री ही जानने लगे। अनुक्रम से आभूषणों की मणियों से प्रकाशित उस दासी ने नगरी में प्रवेश किया। इसके पश्चात् गीतों की ध्वनि और वाजिंत्रों के नाद से आकाश को गुंजाती और हर्षित होती चुलनीदेवी ने उसे ब्रह्मदत्त के साथ विवाहकर दिया। सायंकाल में सर्व लोगों को विदा करके चुलनी ने उन वर-वधु को उस लाक्षागृह में सोने के लिए भेजा। ब्रह्मदत्त भी अन्य परिजनों को विदा करके वधू और अपनी छाया समान मंत्रीपुत्र वरधनु सहित वहाँ शयन करने के लिए गया। मंत्री कुमार के साथ वार्तालाप करते हुए ब्रह्मदत्त ने जागृत स्थिति में ही अर्धरात्रि निर्गमन की। “महात्माओं को अतिनिद्रा कहाँ से हो?' तब चुलनी देवी के आज्ञांकित और नामितमुख वाले पुरुषों ने लाक्षागृह को अग्नि लगाई, फिर आग लग गई, आग लग गई ऐसा चिल्लाने लगे। उनसे ही मानो प्रेरित किया हो ऐसी उस अग्नि ने लाक्षागृह को चारों तरफ से घेर लिया अर्थात् वह चारों तरफ से जलने लगा। उस समय चुलनी और दीर्घराजा के दुष्कृत्य की अपकीर्ति के प्रसार जैसा धूम्र के समूह ने भूमि और आकाश को भर दिया हो, मानो अत्यंत क्षुधातुर हो वैसे सर्व
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)