Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 07
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 17
________________ चित्त में चिंता उत्पन्न हो गई। क्योंकि “पापी जन सर्वत्र शंकित होते ही हैं।" जब तक ये मेरे मर्म को प्रकाशित न करे। (गा. 64 से 66) तब तक मैं इनको नगर से बाहर निकालत्वा दूं, ऐसी आज्ञा दी। तब उन सेवकों ने मंत्री के उन पूर्वोपकारी को मारना आरम्भ किया। “दुर्जन पर उपकार करना सर्प को दूध पिलाने जैसा होता है।" जैसे धान्य के पुंज को कूटते हैं, वैसे सेवकों ने मुनि को कूटा तब वे वहाँ से वन में जाने के लिए जल्दी जल्दी चलने लगे। तथापि उन्होंने उनको नहीं छोड़ा। निरूपाय उन मुनि को शांत होने पर भी कोप चढ़ गया, क्योंकि अग्नि के ताप से शीतल जल भी उष्ण हो जाता है। उसी समय मुनि के मुख में से अकाल में उत्पन्न हुए मेघों में से बिजली के समान तेजोलेश्या उत्पन्न हो गई। वह बिजली के मंडल की भांति आकाश को प्रकाशित करती बड़ी बड़ी ज्वालाओं से उल्लसित होने लगी। इस प्रकार क्रोध से तेजोलेश्या को धारण करते मुनि को प्रसन्न करने के लिए नगर जन भय से और कौतुक से वहाँ आए। राजा सनत्कुमार भी यह हकीकत सुनकर वहाँ आ पहुँचे, क्योंकि “सदबद्धि वाले पुरुष को जहाँ से अग्नि उठे, वहाँ से ही बुझा देनी चाहिये।” राजा संभूतिमुनि को नमस्कार करके बोले, "हे भगवन्! आपको ऐसा करना क्या उचित है?'' चंद्रकांति मणि सूर्य की किरणों से तपने पर भी वह अपनी शीतल कांति को छोड़ती नहीं है। इन सेवकों ने आपका जो अपराध किया, इससे आपको कुपित होना संभव है। क्योंकि क्षीरसागर का मंथन करने पर क्या कालकूट विष उत्पन्न नहीं हुआ? परंतु सत्पुरुषों का क्रोध दुर्जनों के स्नेह जैसा होता है, अर्थात् सत्पुरुषों को कभी क्रोध आता ही नहीं और यदि आ भी जाए तो वह दीर्घ काल तक रहता नहीं है। यदि कदापि रहता है, तो वह निष्फल होता है और उसका फल नहीं मिलता। इस विषय में आपको अधिक क्या कहूँ? मैं तो आपको प्रार्थना करके कह रहा हूँ, कि आप कोप छोड़ दो। क्योंकि आपके जैसे पुरुष अपकारी और उपकारी दोनों में समदृष्टि रखते हैं। (गा. 67 से 78) [6] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)

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