Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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माता का दुराचार और पुत्र का दुर्भाग्य
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के साथ रमण करती है । यदि कोई मनुष्य ऐसा करेगा, तो में उसका निग्रह करूँगा ।" दीर्घ राजा, इस अन्योक्ति को समझ गया । उसने चुलनी से कहा--" तुम्हारा पुत्र मुझे और तुम्हें कोकिला कह कर धमकी दे रहा है । यह हमारे लिए दुःखदायक होगा ।" चुलनी ने कहा- 'यह बालक है । यह क्या समझे इस बात में ? किसी ने कुछ सिखा दिया होगा । इस पर ध्यान मत दीजिये ।"
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ब्रह्मदत्त के हृदय में चिनगारी लगी हुई थी । उसने एक उच्च जाति की हथिनी के साथ एक हलकी जाति का हाथी रख कर पूर्वोक्ति के अनुसार पुनः धमकी दी । दीर्घ ने फिर चुलनी से कहा--" ब्रह्मदत्त यों ही नहीं बोल रहा है । इसका अभिप्राय स्पष्ट ही अपने विरुद्ध है ।" रानी ने कहा--" होगा। यह अपना क्या बिगाड़ सकेगा। इधर ध्यान देना आवश्यक नहीं है ।"
कुछ दिन बाद वह एक हंसिनी के साथ बगुले को रख कर अन्तःपुर में लाया और जोर-जोर से कहने लगा--" यदि कोई इन पक्षियों के समान मर्यादा तोड़ कर दुराचार करेगा, तो वह अवश्य दण्डित होगा ।" यह सुन कर दीर्घ ने फिर कहा--" प्रिये ! तेरे पुत्र के मन में डाह उत्पन्न हो गया है । यह अपना स्नेह-सम्बन्ध सहन नहीं कर सकता । इसे काँटे के समान अपने मार्ग से हटा देना चाहिये ।"
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'नहीं, अपने पुत्र को तो पशु भी नहीं मारते, फिर मेरे तो यह एक ही पुत्र है । मैं इसे कैसे मरवा सकती हूँ," '--रानी बोली ।
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"प्रिये ! तुम मोह छोढ़ो। यदि पुत्र के मोह में रही, तो यह तुमको मार देगा । इसके मन में विद्वेष का विष भरा हुआ है । इसके रहते अपन निर्भय नहीं रह सकते । अपन सुरक्षित हैं, तो पुत्र फिर उत्पन्न हो सकेगा । यदि तुम नहीं रही, तो पुत्र किस काम का ? यह पुत्र तो अपना शत्रु बन चुका है । इसके रहते अपना जीवन सुखी एवं सुरक्षित नहीं रह सकता । तुम्हे दो में से एक चुनना होगा । पुत्र या आनन्दमय सुरक्षित जीवन । बोलो क्या चाहती हो ?"
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चुलनी पर भोगलुब्धता छाई हुई थी। उसने पुत्र-वध स्वीकार कर लिया । किन्तु साथ ही कहा--" यह काम इस रीति से होना चाहिये कि जिससे लोक में निन्दा नहीं हो और अपना षड्यन्त्र छुपा रह सके । उन्होंने एक योजना बनाई । ब्रह्मदत्त की सगाई कर दी और विवाह की तैयारी होने लगी । वर-वधू के लिये एक भव्य भवन निर्माण कराया जाने लगा । उस भवन में लकड़ी के साथ लाख के रस का प्रचूर मात्रा में उपयोग होने लगा ।
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