Book Title: Terapanth Maryada Aur Vyavastha
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Madhukarmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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कारणीक साधु नै आहार देणौ पडै तो पइसा भर तौ सप्पी', करवाली २ उतकष्टी सरस नहीं, अनै अत्यंत निरस पिण नहीं, इसौ देणौ। व्यंजन ६ पइसा भर रै आसरै मझम बंजण। अनै पांच बिगै समचा मांहि थी नही देणी। परभाते विनां पांती रौ लेणौ ए कारणीक नी रीत छै, वैद औषध बतावै तौ बात न्यारी तथा आचार्य आज्ञा देवै तौ बात न्यारी। द्रव्य खेत्र काळ भाव देखी साधु आहार जव, गवू, मकी, बाजरी नी रोटी बहुल पण जे आहार आवै ते माहिलो दीधां कारणीक नै मंढो बिगाड़णो नहीं, 'कुलक भाव' आणें तिण कारणीक रा लखण खोटा। पैंताळीसा रा लिखत में रोगिया विचै सभाव रा अजोग्य नै खोटो कह्यौ" ते भणी कारणीक नै समभाव राखणा। ए सर्व साधां भेळा होय नैं रीत बांधी छै। कारणीक नैं रीत उपरंत आहार व्यंजन विगै तौ देवण वाळा रै अनैं लैण वाळा रै मंडल्या७।
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(हिन्दी अनुवाद) रोगी साधु को समुच्चय का आहार देना पड़े तो पैसा भर घृत,रोटी (न अधिक सरस और न अधिक नीरस) मध्यम व्यंजन छः पैसा भर लगभग दें, पर पाच विगय समुच्चय से न दे। यह प्रातःकाल बिना विभाग की वस्तु लेने की रोगी के लिए व्यवस्था है। इसमें भी वैद्य औषध बताए या आचार्य आज्ञा दे तो अलग बात है ? साधु द्रव्य, क्षेत्र काल भाव देखकर आहार में से जव, गेहूं, मक्की या बाजरी आदि की रोटी जो अधिकांश रूप से मिले उसमें से दे तो रोगी मुंह न बिगाड़े। कालुष्य भाव लाने वाले रोगी की आदत बिगड़ी हुई होती है। संवत् १८४५ के लिखित में "रुग्ण की अपेक्षा स्वभाव के अयोग्य को बुरा कहा है" इसलिए रुग्ण व्यक्ति को समभाव रखना चाहिए। यह व्यवस्था सभी साधुओं ने सम्मिलित होकर की है ! रुग्ण व्यक्ति को इस व्यवस्था के उपरान्त भोजन, व्यंजन, विगय वगैरह दे तो देने वाले तथा लेने वाळे को प्रायश्चित्त मंडल्या ७।
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३. कलुषभाव।
१. घृत । २.रोटी।
टहुका १६३