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१ 'अवगुण सुण-सुपा ने समद्दिष्टी, यां ने जाणे धर्म सूं भिष्टी।
यां रा बोल्यां री परतीत नाणे, झूठ में झूठ बोलतो जांणे।। २. सगळा श्रावक सरीषा नांहि, अकल जुदी-जुदी घट मांहि।
समद्दिष्टी री साची हुवे दृष्ट, यां ने करे थोड़ा मांहे खिष्ट । ३ यां ने न्याय सूं देवे जाब, पाड़े घणा लोकां मांहे आब ।
यां री मूल न आणे संक, यां ने देखाड दे यांरो बंक। ४ थे घणा दोष कहो गुरु मांहि, घणां वरसां रा जांणां छो ताहि।
तो थे पिण साधू किम थाय, जाण-जांण भेला रह्या मांय॥ ५ जो यां में दोष घणां छै अनेक, कदा दोष नहीं छै एक।
ते तो केवळ ज्ञानी रह्या देख, पिण थे तो बूडा लेइ भेष।। ६ जो यां मे दोष कह्या थे साचा, तो ही थे तो निश्चे नहीं आछा।
जो झूठा कह्या तो विशेष भंडा, थे तो दोनूं प्रकारे बूडा॥ थे दोषीला ने वाद्यां कहो पाघ, भेळा रह्या पिण कहो संताप।
दोषीला ने देवे आहार पाणी, वले उपधादिक देवे आणी।। ८ हर कोइ वस्तु देवे आण, करे विनो वैयावच जाण ।
दोषीला सूं थे कियो संभोग, तिण रा पिण जाणजो माठा जोग। ९ इत्यादिक दोषीला सूं करंत, तिण ने पाप कह्यो छै एकंत।
ए थे जाण-जाण किया काम, ते पिण घणां वरसा लग ताम।। १० घणां वरस किया एहवा कर्म, तिण सूं बूड़ गयो थांरो धर्म।
निरंतर दोष सेवण लागा, हुआ व्रत बिहूणा नागा॥ ११ थे कियो अकारज मोटो, छान-छाने चलायो षोटो।
थे तो बांध्यां करमा रा जाळो, आत्मा ने लगायो काळो। १२ थे गुर ने निश्चे जाण्यां असाध, त्यां ने वाद्यां जाणी असमाध।
त्यां रा हिज वांद्या नित पाय, मस्तक दोनूं पग रे लगाय।। १३ यां सूं कीधा थे बारे संभोग, ते पिण जाण्यां सावध जोग।
सावज सेव्यो निरंतर जांण, थे पूरा मूढ़ अयाण।। १४ थे भण-भण ने पाना पोथा, चारित्र विण रह गया थोथा।
थे कहो अर्थ करां म्हे उंडा, थे भण-भण ने काय बूड़ा। १५ थे विहार करता गांम-गांम, सिख सिखणी वधारण काम।
किण ने देता बंधो कराय, किण ने देता घर छोड़ाय ।।
१. लय : विनै रा भाव सुण-सुण गूंजे।
दसवीं हाजरी : २३७