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बन्दी न करें। इसीलिए भिक्षु स्वामी ने पैंतालिस के लिखत में कहा है “जो गण में रहते हुए साधु-साध्वियों को फंटाकर दलबन्दी करता है, वह विश्वासघाती और बहुलकर्मी है। स्वामी जी ने स्थान-स्थान पर दल बन्दी पर प्रहार किया है। पचास के लिखत में उन्होंने लिखा है-"कोई साधु साध्वी गण में भेद न डाले और दलबन्दी न करे।" स्वामी जी ने चन्द्रभाणजी और तिलोकचन्द जी को इसलिए गण से अलग किया कि वे जो साधुआचार्य से सम्मुख थे, उन्हें विमुख करते थे। छिपे-छिपे गण के साधु साध्वियों को फोड़फोड़ कर अपना बना रहे थे, दल बन्दी कर रहे थे। हमारा यह प्रसिद्ध सूत्र है “जिल्लो ते संयम ने टिल्लो"। गण में भेद डालने वाले के लिए भगवान ने दसवें प्रायश्चित का विधान किया है। तथा भिक्षु स्वामी ने कहा-"जी गण के साधु-साध्वियों में साधु-पन सरधे, अपने आप में साधु-पन सरधे, वह गण में रहे। छल कपट पूर्वक गण में न रहे।" पचास के लिखित में उन्होंने कहा-"जिस का मन साक्षी दे, भली भांति साधुपन पलता जाने, गण में तथा आप में साधुपन मानें तो गण में रहे, किन्तु वंचनापूर्वक गण में रहने का त्याग है।
गण में जो साधु-साध्वियां हो, उन में परस्पर सौहार्द रहे। कोई परस्पर कलह न करे तथा उपशान्त कलह की उदीरणा न करे। इसीलिए भिक्षु स्वामी ने कहा-"गण के किसी साधु-साध्वी के प्रति अनास्था उपजे, शंका उपजे वैसी बात करने का तयाग है। किसी में दोष देखे तो तत्काल उसे जता दे तथा आचार्य को जता दे किन्तु उस का प्रचार न करें। दोषों को चुन-चुन कर इकट्ठा न करें। जो जान पडै उसे अवसर देख कर तुरंत जता दे। वह प्रायश्चित का भागी है जो बहुत समय बाद दोष बताए। विनीत अवनीत की चौपाई में उन्होंने कहा है
"दोष देखे किण ही साध में, तो कह देणों तिण नैं एकन्त। जो मानें नहीं तो कहणों गुरू कने, ते श्रावक छै बुद्धिवन्त ।।
सुविनीत श्रावक एहवा।।१।। प्राश्चित दराय नै सुद्ध करै, पिण न कहै अवरां पास। ते श्रावक गिरवा गम्भीर छ, वीर बखाण्यां तास ।। दोष रा धणी नै तो कहे नही, उण रा गुरु नै पिण न कहै जाय। और लोकां आगै बकतो फिरै, तिणरी प्रतीत किण विध आय॥
अविनीत श्रावक एहवा ।।३।। तथा किसी साधु-साध्वी को जाति आदि को लेकर ओछी जबान न कहे। आपस में मन मुटाव हो, वैसा शब्द न बोले, एक दूसरे में सन्देह उत्पन्न न करे।
तथा गण और गणी की गुण रूप वार्ता करे। कोई गण तथा गणी की उतरती बात करे, उसे टोक दे और वह जो कहे उसे आचार्य को जता दे। कोई उतरती बात करता है
परिशिष्ट : गणपति सिखावण : ४५९