Book Title: Terapanth Maryada Aur Vyavastha
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Madhukarmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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और कोई उसे सुनता है, वह दोनों अविनीत है, विनीत वह होता है जो आज्ञा को सर्वोपरि माने
जिन शासन में आज्ञा बड़ी, आ तो बांधी रे भगवंता पाळ। सहु सज्जन असज्जन भेळा रहे, छान्दो रून्धे रे प्रभु वचन सम्भाळ।
बुद्धिवन्ता एकल संगत न कीजिए। छान्दो रून्ध्या विण संजम नीपजै, तो कुण चालै रे पर ही आज्ञा मांय। सहु आप मते हुवै एकला, खिण भेळा रे खिण बिखर जाय।
भगवान ने कहा है-"चइज्ज देहं न हु धम्म सासणं' मुनि शरीर को छोड़ दे, किन्तु धर्म-शासन को न छोड़े। जयाचार्य ने उसे पुष्ट करते हुए लिखा है
नन्दन वन भिक्षु गण में बसोरी, हे जी प्राण जाये तो पग म खिसौरी-१ गण माहे ज्ञान-ध्यान शोभै री, हे जी दीपक मन्दिर मांहे जिसोरी-२ टाळोकर नों भणवो न शोभै री, हे जी नाक बिना ओ तो मुखड़ो जिसोरी-३ भाग्य बले भिक्षु गण पायोरी, हे जी रतन चिन्तामणी पिण न इसोरी-४
गण पति कोप्यां ही गाढ़ा रहोरी, हे जी समचित शासण मांहे लसोरी-५ किन्तु कोई साधु-साध्वी क्रोधादिवश आज्ञा और अनुशासन का पालन नहीं कर सकने पर अथवा अन्य किसी कारण से गण से अलग हो जाये अथवा किसी को अलग किया जावे तो किसी साधु-साध्वी का मन भंग कर अपने साथ ले जाने का त्याग है। कोई जाना चाहे तो भी उसे साथ ले जाने का त्याग है। गण के साधु-साध्वियों की उतरती बात करने का त्याग है। अंशमात्र भी अवर्णवाद बोलने का त्याग है और छिपेछिपे लोगों को शंकाशील बना गण के प्रति अनास्था उपजाने का त्याग है, तथा वस्त्र, पात्र, पुस्तक- पन्ने आदि गण के होते हैं, इसीलिए उन्हें अपने साथ ले जाने का त्याग है।
गण से बहिष्कृत या बहिर्भूत व्यक्तियों के प्रति हमारा क्या दृष्टिकोण होना चाहिए, उसे स्पष्ट करते हुए भिक्षु स्वामी ने लिखा है-"गण से बहिष्कृत या बर्हिभूत व्यक्ति को साधु न सरधा जाये, चार तीर्थ में न गिना जाये, साधु मान वंदना न की जाये। श्रावक श्राविकाएं भी इन मर्यादाओं के पालन में सजग रहे।
भिक्षु स्वामी ने गण की सुव्यवस्था के लिए, मर्यादा की और उन्हें दीर्घ दृष्टि से देखा कि भविष्य में वर्तमान मर्यादाओं में परिवर्तन या संशोधन आवश्यक हो सकता है, इसीलिए उन्होंने लिखा कि आगे जब कभी भी आचार्य आवश्यक समझे तो वे इन मर्यादाओं में परिवर्तन या संशोधन करें और आवश्यक समझे तो कोई नई मर्यादा करें। पूर्व मर्यादाओं में परिवर्तन या संशोधन हो अथवा नई मर्यादाओं का निर्माण हो, उसे सब साधु-साध्वियां सहर्ष स्वीकार करें।
सफल साधु वही होता है जो साधना में लीन रहे। निर्लेप रहने के लिए यह आवश्यक ४६० तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था