________________
२ सगळा साधा नै कहे असाध, बले करे घणो विषवाद।
सर्व साधां रो होय जाये वैरी, केइ एहवा छै अवनीत गेरी॥ ३ तिण नै लोक आरै करै नाही, तो उ प्राछित ले आवै मांही।
त्यां न असाध परुप्या मुख सूं, त्यां रा वांदे पग मस्तक सूं। जो उ बले न चाळे सूधो, तो उण नै बलै करदे गुर जुदो। जब अवनीत रै उवाहीज रीत, न्यारो कियां बोले विपरीत॥ लोका नै साधां सूं भिडकावे, आप बुगलध्यानी होय जावै। बले कूड़कपट रो चाळो, आत्मा नै लगावे काळो।। उ तो अवगुण काढ़े अनेक, बुधवंत न माने एक।
एहवा अवनीत छै गुरद्रोही, तिण आत्म पूरी विगोइ।। ७ जो मांने अवनीत री बात, त्यां रा घट मांहे आवे मिथ्यात। एहवा अवनीत अवगुणमारा, त्यां सूं बुद्धिवंत रहसी न्यारा॥
. अथ इहा भीखणजी स्वामी पिण कह्यो
"अवनीत री याहीज रीत, न्यारो हुवां बोले विपरीत।" एहवा अवनीत रा लखण कह्या। ते अविनीत इह लोक म फिट-फिट होवे अनै परभव में नरक निगोद में जाय अनंत काळ दुख भोगवै। भीखणजी स्वामी पिण अवनीत रा फळ कड़वा कह्या छै, अवनीत नै छोड्यां गुण कह्यो छै, ते गाथा१ 'उज्झिया भोगवती नै घर सूंपिया रे,तो करे खजानो खुराब रे। सुगण नर। ज्यूं अवनीत नै गण सूपियां रे लाल, तो जाए टोळा री आब रे। सुगण नर।
भाव सुणो अवनीत रा रे लाल.॥धु पदं ।। जिण टोळा में अवनीत छै, तिण सूं आछो कदे मत जांण। तिण री खप करने ठाम आंणजो, नहीं तो परहरो चतुर सुजाण ॥ ज्यूं अवनीत नै छोड्यां थकां, ज्ञानादिक गुण वधता जांण। मिट जाये कलेस कदागरो, त्यां नै नेड़ी हुसी निरवांण।। ज्यां रै सिखां रो लोभ लालच नहीं, ते तो दूर तजे अवनीत। गरगाचारज सारिषा, गया जमारो जीत। केइ अवनीत नरके गया, केइ जाय पझ्या छै निगोद। आप छांदे उंधी अकल स्यूं, ते गमाय नै समगत' बोध। अवनीत में अवगुण घणां, ते तो पूरा कह्या न जाय । तिण अनुसारे अनेक छै, ते बुद्धिवंत देसी बताय॥
१. लय-धीज करै सीता सती
२. सम्यक्त्व
।
चौदहवीं हाजरी : २५९