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इहा पिण भीखणजी स्वामी खामी मेटवा अनेक सीखामण दीधी ते भणी सुवनीत हुवै ते समभाव सूं खमे। अने खामी मेटे, विनय बधावे तो ए भव में गुरां री मुरजी वधे। सुजश हुवे। परभव मुक्ति नेड़ी हुवै। तथा विनीत अवनीत री चोपी में भाव विवध बताया ते कहे छै। १ जो अगन में रुड़ी वस्त घाल्यां थकां, तो बळ जळ भस्म होय जाय हो। ज्यूं अविनय रूपणी अगन सूं बळे, अवगुण परगट थाय हो।
श्री वीर कह्यो अवनीत नै अति बुरो ॥ध्रुपदं। कोइ बालक नाग जांणी नै खिजाविया, तो उ पामे उण सूं घात। इण दिष्टंते गुर री हेला नंद्या कियां, पांमे एकेद्रियादिक जात॥ आसीविष सर्प अंतत रूठो थको, जीव घात सूं अधिको न थाय। पिण गुर रा पग अप्रसन्न हुआं थकां, अबोध नै मुक्ति न जाय॥ कोइ अग्नि प्रजळती ने चांपे पग थकी,कोइ सर्प ने क्रोध चढ़ाये जांण। कोइ तालपुट विष खाये जीववा भणी, ज्यूं गुर री असातन जाण।। कदा अग्न न बाले मंत्रादिक जोग सूं, कदा कोप्यो ही सर्प न खाय। कदा तालपुट विष न मारै खाधां थंका,पिण गुर हेलणां सूं मुगत न जाय॥ कोइ पर्वत बांछे सिरसूं फोड़वो, कोइ सूतोइ सींह जगाय ।
कोइ भाला री अणी ने मारे टाकरां, ज्यूं गुर री असातन थाय॥ ७ कदा पर्वत पिण फोड़े कोइ मस्तके, कदा कोप्योइ सींह न खाय।
कदी भालो इ न भेदे टाकरां, पिण गुर हेलणां तूं मुगत न जाय। ८ कोइ क्रोधी कुशिष्य अज्ञानी अहंकार सू, बोले विगर विचारी वांण।
ते मायावियो धूरत तांणीजसी संसार में,काष्ट वूहो जाये पाणी में जांण। अवनीत नै सीख दिये हेत जुगत सुं, तो उ क्रोध करै तिण बार।
तो आवती लिछमी न ठेळे डांडे करी, ते तो पूरो छै मूढ गिंवार॥ १० केइ हाथी घोड़ा छै अवनीत आत्मा, त्यां नै प्रत्यक्ष दीसै दुःख।
अवनीत धर्म आचार्य तेह नो, ते किण विध पांमे सुख ।। ११ वले अवनीत आत्मा दुख पांमे घणो, लोक मांहे नर नार।
ते विकलेन्द्री सरीखा छै सुध-बुध बाहिरा,त्यांरो बिगड्यो दीसै आकार। अवनीत ज्ञान दर्शन चारित्र तणों, उ दिन-दिन पांमे विणांस। उण नै ऊंधो सूझे ऊधो ही अर्थ करै,बलै बुधि नै अकल रो होवे नास॥
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१. लय : पूज्यजी पधारो नगरी सेविया।
पन्द्रहवीं हाजरी : २६३