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२७ मोख रूपीयो बीज तिण फळ मझे, एहवो धर्म छै अखोभ।
ते समदृष्ट रे हिरदे विराजतो, विनै मूळ सूं रह्यो सोभ।। २८ ज्यूं विरख रो मूळ सूकां थकां, सीखादिक सगळा सूक जाय।
ज्यूं विनै रूप मूळ खिस गयां, सगळा गुण खय थाय॥ गुर गुर भाइ नै टोळा तणा, गुण बोले रूड़ी रीत।
लोक पिण गुण ग्रांम करतां थकां, सुण-सुण हरषै सुवनीत । ३० सिख सिखणी मिले ओर साध नै, मिले ओषधादिक अनेक
बलै कंठकला देखी ओर री, विनीत तो हरषे विशेष ।। ३१ किण ही साधां रो नहीं करै ईसको, सर्व साधां नै हुवै हितकार।
एहवा सुवनीत री वासावली, फेले तीनूं लोक मझार।। ३२ गमतो लागै तीर्थ च्यार नै, जिण सासण रो सिणगार।
एहवै सुवनीत रे पासे रह्यां, सीखावे विनै आचार ।। ३३ ज्यांरी जात माता री निरमळी, पिता रो कुळ छै निरदोष।
ते पिण लज्या करै सहीत छै, ते विनो करै लेसी मोष।। ३४ ते पिण मोह कर्म पतळो पड़यां, सुद्ध रीत जाणे बुद्धिवान।
हाड मीजा रंगी जिन - धर्म सूं, तिण नै विनो करणो आसान। ३५ केइ क्रोधी अंहकारी निरलजो, भेष पहरी करै कपटाय।
इहलोक तणां अर्थी घणां, त्यां सूं विनो कियो किम जाय॥ ३६ अवनीत में अवगुण घणां, ते तो जाबक छोड़े विनीत ।
विना रा गुण सगळा आदरै, ते तो गया जमारो जीत।। ३७ उतराध्येन पहलाध्येन में, दसवीकालिक नवमे जांण ।
बलै ओर अनेक सिद्धांत में, किया वनीत रा वखांण। ३८ सतगुर तणां वनीत नै, गुण भाख्या श्री भगवंत ।
कोड़ जिभ्या करे वरणवे, पिण कहतां न आवै अंत ।। इम इत्यादिक वनीत रा गुण वर्णव्या, ते भणी विनयवंत गुणवंत ते सासण में रंगरता रहे। मुरजी प्रमाणे आखी उमर तांइ अनुकूलपणे प्रवर्ते। अवनीत री संगत न करै। तथा पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो-टोळा माहे कदाच कर्म जोगे टोळा बारैपडे तो टोळा रा साध-साधव्यां रा अंस मातर संका पडै ज्यूं अवर्णवाद बोलण रा त्याग छै। संका पडै आसता उतरे ज्यूं बोलण रा त्याग छै। टोळा मांहे सूंफार नै साथै जावा रा त्याग छै। उ आवै तो ही ले जावा रा त्याग छै। टोळा माहे न बारै नीकल्यां पिण ओगुण बोलण रा त्याग छै। मांहोमां मन फटै ज्यूं बोलण रा त्याग छै। इम पैंताळीसा रा लिखत में कह्यो ते भणी सासण री गुणोत्कीर्तन रूप बात करणी। भागहीण हुवै सो उतरती बात करै, भागहीण सुणे तथा सुणी आचार्य नै न कहै ते पिण भाग्यहीण । तिण नै तीर्थंकर नो चोर कहणो, हरामखोर कहणो, तीन धिकार देणी। २८२ तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था