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तथा संवत् १८५९ रे वरस साध-साधवियां रे घृत, दूध दही आदि खावा री मर्यादा बांधी, तिण लिखत में एहवो कह्यो-आगन्या विण सेषे काळ चोमासो रहे तिण रे जितरा दिन पांचोइ विगै ने सूंषरी रा त्याग छै, ए सूंस जावजीव तांई छै। .
तथा संवत् १८५९ रा लिखत में कह्यो-“कदा कर्म धकौ दीधा टोळा सूं टळे तो उण रे टोळा रा साध-साधवियां रा अंस मात्र हुंता अणहुंता अवर्णवाद बोलण रा अनंत सिद्धां री ने पांचोंइ पदां री आंण छै। पांचोंइ पदां री साख सूपचखांण छै। किण ही साध-साधव्यां री संका परै ज्यूं बोलण रा पचखांण छै। कदा उ विटळ होय सूंस भांगे तो ही हलुकर्मी न्यायवादी तो न माने। उण सरीषो विटळ कोई माने तो लेखा में नहीं।
__ तथा इमहिज संवत् १८५० रा वर्स में कह्यो-टोळा सूं टळने किण ही साध-साधव्यां रा अवगुण बोलण रा, हुतो अणहूंतो ख्रचणो काढ़ण रा त्याग छै। रहिसे२ लोकां रे संका घालने आसता उतारण रा त्याग छै'। एहवो पचासा रा लिखत में कह्यो।
तथा संवत् १८४५ रा लिखत में कह्यो-“उण ने साधु किम जाणिये जो एकलो वेण री सरधा हवे, इसड़ी सरधा धारने टोळा मांहे बेठो रहे छै माहरी इच्छा आवसी तो माहे रहिसं. म्हारी इच्छा आवसी जद एकलो हुसूं, इसड़ी सरधा सूं टोळा माहे रहे ते तो निश्चें असाध छै। साधपणो सरधे तो पहला गुणठाणां रो धणी छै। दगाबाजी ठागा सूं मांहे रहे तिण ने मांहे राखे जाणने त्यांने पिण महादोष छै। कदाच टोळा मांहे दोष जाणे तो टोळा माहे रहिणो नहीं । एकलो होय न सलेषणा करणी। वेगो आत्मा रो सुधारो हुवे ज्यूं करणो। आ सरधा हुवे तो टोळा मांहे राखणो। गाळागोळी करने रहे तो राखणो नहीं। उत्तर देणो, बारे काढ़ देणो, पछे इ आळ दे नीकळे तो किसा काम रो"-एहवो पेंताळीसा रा लिखत में कह्यो।
तथा संवत् १८५९ रा वरस लिखत में कह्यों-"टोळा मांहे सूं टळें तो टोळा मांहे उपगरण करे ते, पाना लिखे जाचे ते साथे ले जावा रा त्याग छै। अनन्ता सिद्धां री साख करने छ। टोळा सू न्यारो हुवे इण सरधा रा बाई भाई हुवे त्यां रहिणो नहीं। एक बाई भाई हुवे तिहां रहिणो नहीं। वाट वहितो एक रात कारण पडिया रहे तो पांच विगै ने संखडी खावा रा त्याग छै। अनन्ता सिद्धां री साख करने छै” ए गुणसठा रा लिखत में कह्यो। तथा अवनीत रा लषण वनीत अवनीत री ढाळ में ओळषाया ते गाथा
'उ गुर रा पिण गुण सुणने विलषो हुवे रे, अवगुण सुणे तो हरषत थाय रे। ___ एहवा अभिमानी अवनीत तेहने रे, ओळषावू भव जीवा ने इण न्याय रे॥
अवनीत भारीकर्मा एहवा रे।। कोई प्रतनीक अवगुण बोले गुर तणा, अवनीत गुरद्रोही पासे आय।
तो उत्तर पडउत्तर न दे तेहने, अभिंतर में मन रलियायत थाय॥ ३ उ खिण माहे रंग विरंग करतो थको,बली गुर सूं पिण जाए खिण में रूस।
जब गूंथे अज्ञानी कूड़ा गूंथणां, ओर अवनीत सूं मिलवा री मन हूंस॥
१. लय-श्री जिनवर गणधर मुनिवर ने कहे।
आठवीं हाजरी : २२७