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लक्षण मेट्या विनीत कहिये । ते विनीत रा गुण वर्णव्या ते चोपी मांहिली प्रथम ढाळ नी केयक
गाथा
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जे पाले निरंतर गुर री आगन्या रे, समीपे रहे तो रूड़ी रीत रे । ते जांण वरते गुर री अंग चेष्टा रे, तिण ने श्री वीर कह्यो सुवनीत रे ॥ विनो कीजे एहवा सतगुर तणो ॥ निरवाण साधन काज । संजम ने तप सूं भांज || ते अवनीत भारी कर्मा एहवा ॥
के गुर री नहीं पाले मूर्ख आगन्या, समीपे रहता संके मन मांय । रखे करावे कार्य मो कनै, एहवो बूड़ण रो करे उपाय ॥ ते प्रतीक अंतर में गुर नो पापियो, उण तत्व न जाण्यो रूड़ी रीत । उणरे कूड़ कपट ने धेठापणो घणो, तिण ने श्री वीर कह्यो अवनीत ॥
विनो तो जिण सासण रो मूळ छै, विनो जेविनो ते करण सूं उपराठा पड़या, रह्या
जो कार्य करे अवनीत गुर तणो रे, ते जाणे अग्यानी बेठ समान । तिण धर्म जिणेसर नो नहीं ओलख्यो, चिंहु गति में होसी घणो हेरान ॥ जो तप कर काया कष्टे आपणी, ते जश कीरत के खावा ध्यान । के पूजा श्लाघा रो भूखो थको, पिण विनो करणो नहीं आसान ॥ जो धरावे ग्रहस्थ ने बोल थोकड़ा, ते पिण मान बड़ाइ काज | उ आपो परसंसे अवर ने निंदतो, ते अवनीत निरलज नांणें लाज ॥ अवनीत ने आपो दमवो दोहिलो, तिण रा अथिर परिणाम रहे सदीव | उ किणविध पाळे गुर री आगन्या, जे क्रोधी अहंकारी दुष्टी जीव || उण रे चेला करण री मन में अति घणी, गुर रा गुण मुख सुं कह्या न जाय । रखे मोने छोड़े ले दिख्या गुरु कनै, एहवी ओघटघाट घणी घट मांहि ॥ के गुर री आज्ञा लोपी चेलो करे, तिण छोड़ी छै जिण सासण री रीत । ते फिट-फिट होसी समझू लोक में, परभव में पिण होसी घणो फजीत ॥ वैराग घट्यो ने आपो वस नहीं, तिण रे रहे चेला करण रो ध्यान । उण ने सिख मिलायां सूं तो उ शिथल पड़े, बले वधे लोळपणो ने अभिमान ॥ वनीत सिख रे सिख री मन ऊपनी, पिण गुर री आज्ञा विण न करे चाव । तिण आत्म दमी ने इंद्र्यां वस करी, सीख मिलियां सरल सभाव ॥ जो वनीत आगे घर छोड़े तेहने रे, तो वनीत बोले सूतर रे न्याय । हूं आज्ञा विण चेलो किम करूं रे, हूं दिख्या देसूं पूछी गुर ने जाय ॥
१. लय - श्री जिनवर गणधर मुनिवर ।
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तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था