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१ 'उज्झिया भोगवती नै घर सूंपिया रे, तो करै खजानो खराब रे |सु०। ज्यूं अवनीत नै गण सूंपिया रे, तो जावै टोळा री आब रे।।
सुगुण जन भाव सुणो अविनीत नो रे लाल॥ २ जिण टोळा में अवनीत छै, तिण सूं आछो कदेय म जाण।
तिण री खप करनै ठाय आणज्यो, नहीं तो परहरो चतुर सुजाण ॥ ज्यारै शिषां रो लोभ लालच नहीं, ते तो दूर तजै अवनीत।
गर्ग आचार्य सारीसा रे, ते गया जमारो जीत। ४ ज्यूं अवनीत नै छोड्या थंका रे, ज्ञानादिक गुण वधता जाण।
मिट जाय कलेस कदागरो, त्यांनै नेड़ी होसी निरवाण॥ अवनीत रा भाव सांभळी, घणो हर्ष पामै नर-नार। केई भारीकर्मा उळटा पडै, त्यारै घट में घोर अंधार॥
अथ इहां उज्जिया भोगवती आदि नो दृष्टांत देइ अवनीत नै गण सूंपणो नहीं। अवनीत नै गण सूंपवा थकी टोला री आब जावै इम कह्यो। तथा जे गुरु नै शिष्यां रो लोभ न हुवै तेहने गर्गाचारज नी उपमा दीनी तथा अवनीत छोड्यां थकी टोळा में गुण वधै इम कह्यो। तथा वनीत अवनीत री चोपी री आठमी ढाळ में पिण एहवा भाव कह्या१ पाळे गुरु री निरन्तर आगन्या, कनै राख्या हुवै हरष अपारजी। बले वरतै गुरु री अंग चेष्टा, तिण सफळ कियो अवतारजी।
श्रीवीर वखाण्यो वनीत नै ॥धुपदं। २. तिणनै करडै काठे वचने करी, गुरु सीख देवै किण वार।
तो उ खिम्या करै धर्म जाण नै, पिण नाणै क्रोध लिगार॥ ३ सुकुमाल कठोर वचने करी, गुरु दीधी सीखावण मोय।
सुवनीत हुवै ते इम चिंतवै, मानै हित रो कारण होय।। ४ आहार पाणी कपड़ादिक भोगवै, ते पिण गुरु री आज्ञा सहीत।
शिष्य पिण न करै आगन्या विना, पाऊँ जिन शासण री रीत॥
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१. लय : पूज्यजी पधारो नगरी सेविया। २. लय : जीवा मोह अनुकंपा नै आणिय।
गण विशुद्धिकरण बड़ी हाजरी : १९५