Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

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Page 15
________________ कोल्हापुर की प्रति - कोल्हापुर के लक्ष्मीसेन मठ के ग्रन्धागार में भी स्वरूपसम्बोधन-पञ्चविंशति: ग्रन्थ की ताड़पत्रीय प्रति है, जिसमें कन्नड़ टीका भी है। इस टीका के कर्ता नयसेन के शिष्य महासेन हैं। इस तरह यह वही कन्नड़ टीका प्रति है, जो इस ग्रन्थ में प्रकाशित है। इसकी प्रशस्ति के किंचित् भ्रमपूर्ण अनुवाद/भाव के कारण डॉ० ए०एन० उपाध्ये ने महासेन को मूलग्रन्थकर्ता कहा है, जबकि मूलग्रन्थकर्ता आचार्य भट्टाकलंकदेव है। इस विषय में चर्चा प्रस्तावना में सविस्तार की गयी है, अत: यहाँ विस्तार एवं पुनरुक्तिभय से उसे नहीं ले रहे हैं। आदित: अन्तपर्यन्त इस प्रति में व प्रकाश्य कन्नड़ टीका व मूलपाठ में कोई भेद नहीं है। इनके अतिरिक्त कोई प्राचीन पाण्डुलिपि मुझे इस ग्रन्थ की प्राप्त नहीं हो सकी है। अत: जो प्रकाशित प्रतियाँ मुझे उपलब्ध हो सकी, उनका संक्षिप्त परिचय भी निम्नानुसार है शान्ति सोपान-सन् 1974 में इस संग्रह-ग्रन्थ का तृतीय संस्करण प्रकाशित हुआ था, वहीं प्रति मुझे प्राप्त हुई है। इसमें कुल 128 पृष्ठों में परमानन्द स्तोत्र, स्वरूप-सम्बोधन, सामायिक पाठ, मृत्यु-महोत्सव, समाधिशतक और महावीराष्टकये छह ग्रन्थ अनुवादसहित प्रकाशित हैं। इस संग्रह ग्रन्थ के संकलनकर्ता ब्रम् ज्ञानानन्द जी न्यायतीर्थ एवं प्रकाशक: प्रकाशचन्द शीलचन्द जैन जौहरी, दिल्ली हैं। इसके पृष्ठ क्रमांक 24 से 35 तक कुल बारह पृष्ठों में स्वरूप-सम्बोधन' शीर्षक से यह ग्रन्थ अर्थसहित प्रकाशित है। इसमें नमार्थ देने की भी चेष्टा अनुवादक में की है। इसी संग्रह प्रति (शान्ति-सोपान) की भूमिका, पृष्ठ 14 पर एक पैराग्राफ में इस ग्रन्थ का संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है। टिप्पण- इसमें मात्र 25 पद्य हैं। प्रकाश्य प्रति का 20वाँ पद्य (तथाप्यति तृष्णावान्......) इसमें अनुपलब्ध है। इसमें भी पद्य क्रं. 3 एवं 4 में क्रमव्यत्यय है। ग्रन्थ का नाम इसमें मात्र 'स्वरूप-सम्बोधन' दिया गया है, जबकि स्वयं ग्रन्धकार ने अन्तिम पद्य में ग्रंथ का नाम स्वरूपसम्बोधन-पञ्चविंशति:' स्पष्टरूप से दिया है। इसमें आधार प्रति का परिचय भी नहीं दिया गया है। वृहज्जिनवाणी-संग्रह- अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन, पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर (राज०) से अक्टूबर 1987 में प्रकाशित इस संग्रह-ग्रन्थ के 1. द्रष्टव्य, शास्त्री कैलाश चन्द्र, जैन साहित्य का इतिहास, भाग 1, पृष्ठ 188. XI

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