Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

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Page 13
________________ समझकर उसे छोड़ दिया है। फिर भी यह मनुष्य इस संसार में सुख मिल रहा है' - ऐसा समझकर संसार में डूबा रहता है - यह अत्यन्त कष्ट की बात है।) ___ ग्रन्यांक 529 - यह 7 पत्रों की प्रति है। इसमें संस्कृत टीका है, तथा प्रकाश्य ग्रंथ में जो संस्कृत टीका दी जा रही है, उसकी 'आधार-प्रति यही है। इसी ग्रन्थ में टीका के बाद पही ग्रन्थ मूलरूप में भी मात्र एक पृष्ठ में लिपिबद्ध है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार है – “।। श्री वीतरागाय नमः ।। स्वरूपसम्बोधनाख्य ग्रन्थस्यानम्य तन्मुनिम् । रचितास्पाकलंकेन वृत्तिं वक्ष्ये जिनं नमिम् ।। - श्रीमदकलंकदेव: स्वस्य भावसंशुद्धेनिमित्तं सकलभव्यजनोपकारिणं ग्रंथेनाल्ममनल्पार्थं स्वरूपसम्बोधनाख्यं ग्रन्थमिमं विरचयंस्तदादौ मुख्यमंगलनिमित्तं परमज्योति-स्वरूपपरमात्मानं नमस्कुन्निदमाह "मुस्तामुक्तक.............. .............. नमामि तम्"।। अन्त में- भट्टाकलंकचन्द्रस्य सूक्तिनिर्मलरश्मयः । विकासयन्तु भव्यानां हृत्कैरवसंकुलम् ।। भट्टाकलंकदेवैः स्वरूपसंबोधनं व्यरचितस्य । टीका केशववर्या कृता स्वरूपोपलब्धिमवाप्तुम् । । ।। श्री वीतरागाय नमः ।। मन्यांक 552 – इस प्रति में पत्र संख्या 94 से 98 तक कुल पाँच पत्र हैं। इसमें भी उपर्युक्त संस्कृत टीका यथावत् दी गयी है। प्रति ठीक एवं शुद्ध है, किन्तु अंतिम दो पत्र टूट गये हैं, तथापि ग्रन्थभंग नहीं हैं। - इन प्रतियों के अतिरिक्त ग्रन्थांक 162 की प्रति मात्र इसलिए उल्लेखनीय है कि इसकी पुष्पिका में लिपिकार ने अपना नाम एवं लेखनकाल का उल्लेख किया है। इसके अनुसार प्रति का लेखक (लिपिकार) बाडगेरे निवासी अपिण शेट्टी के पुत्र नागण्ण हैं तथा लेखनकाल शालिवाहन शक सर्वत् 1368 (1446 ई०) है, किन्तु तिथि, पक्ष, एवं मास आदि का कोई उल्लेख इसमें नहीं है। अन्य किसी भी प्रति में लेखनकाल व लिपिकार का उल्लेख न होने से इसकी सीमित ही सही, किन्तु अपनी अलग महत्ता है। अन्यत्र प्राप्त प्रतियों का विवरण प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के ग्रन्थागारों में स्वरूपसम्बोधन-पंचविंशति' IX

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