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की यह स्वप्रकाशकता मात्र न्यायशास्त्र में ही मानी गयी हो ऐसा नहीं है। अध्यात्मयुग के प्रमुख आचार्य अमृतचंद्र ने भी आबाल-गोपाल को स्वयं का (आत्मा का) ज्ञान होना माना है, किन्तु उसे आत्मानुभवी के ज्ञान की तरह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष नहीं माना है। वह ज्ञान घट-पटादि परपदार्थों को जैसा निर्णयात्मकरूप से जानता है, वैसे अपने आपको निर्णयात्मकरूप से स्पष्ट नहीं जानता है।
'व्यवसायात्मक' पद का अर्थ है निर्णयात्मक ज्ञान। इसका 'स्व' एवं 'अर्ध'इन दोनों पदों के साथ प्रयोग होगा-'स्वव्यवसायात्मक' एवं 'अर्थव्यवसायात्मक' ! ज्ञान निर्णयात्मक हो, तभी प्रमाण माना गया है; संशय या अनिर्णय से युक्त ज्ञान को प्रमाण नहीं माना गया है। साथ ही वह निर्णय सम्यक् (वस्तुस्वरूप के अनुसार) होना चाहिए, विपरीत नहीं; अन्यथा उसे 'विपर्यय' ज्ञान कहकर अप्रमाण कह दिया जायेगा।
प्रमाणफल (प्रमिति) की प्रमाण (ज्ञान) से भिन्नता और अभिन्नता दो रूपों में मानी गयी है। एक तो प्रमाण का साक्षात् फल-अज्ञान की निवृत्ति के रूप में प्रमाण और प्रमिति अभिन्न हैं। तथा परम्पराफल (त्याग-ग्रहण आदि) के रूप में प्रमिति प्रमाण से भिन्न मानी गयी है। दूसरे रूप में द्रव्यात्मकरूप में प्रमिति प्रमाण से अभिन्न एवं पर्यायात्मकरूप में भिन्न मानी गयी है।' यही अभिप्राय 'कथञ्चित्प्रमितेर्पथक्' इस वाक्यांश द्वारा अकलंकदेव ने यहाँ सूचित किया है।
'यथावद् वस्तुनिनीति सम्यग्ज्ञानम् कहकर यहाँ सम्याज्ञान का अध्यात्मगत परिचय भी दिया है। साथ ही प्रमाणपरक न्यायशास्त्रीय परिचय भी दिया गया है, जो कि ऊपर स्पष्ट किया गया है।
1. प्रमेयरत्नमाला, मंगलाचरण; पद्य 2 | 2. न्यायदीपिका, 18 पृ. 9 3. द्रा न्यायकुमुद वन्द्र, पृष्ठ 208 | 4. द्र जैनदर्शन (डॉ. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य) पृ० 294 | 5. समयसार, गाथा 16-17 की आत्मख्याति टीका। 6. द्र० जैनन्याय (पं० कैलाशचन्द शास्त्री) पृष्ठ 337 । 7. द्र० जैनदर्शन (डॉ० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य) पृ० 294 ।
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