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कन्नड़ टीकाकार की प्रशस्तिश्रीमदकलंक कर्त मोदलागे षट्तर्कषण्मुखरुं समन्तादध्यात्मसहित्यवेदिगळं मूलकर्तृगळु नामधेयर्मप्प श्रीमन्महासेनपंडितदेवरिदं सूरस्तगणाग्रगण्यरप्प सैद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमत् पिरिय वासुपूज्यसैद्धान्तदेवर गुड्डनप्प पद्मरसं स्वरूपसम्बोधनपंचविंशत्तिय नवरससमीषदोळ् केळुत्तं कर्नाटकवृत्तियं स्व-पर-हितमागि माडिसिदं ।
मंगलमहा ।। श्री-श्री-श्री-श्री-श्री।।
।। वीतरागाय नमः ।।
हिन्दी अनुवाद-श्रीमद् अकलंमदेव इस ग्रन्थ के कर्ता हैं । वे षट्तों के लिए षण्मुख (कार्तिकेय) के समान हैं। वे सब ओर से चारों दिशाओं से अध्यात्मसाहित्य के बड़े ही प्रगल्भजाता हैं एवं इस ग्रन्थ के मूलकर्ता है। श्रीमान् महासेन पण्डितदेव ने समस्त गणों में अग्रणी सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमत् ज्येष्ठ वासुपूज्य सैद्धान्तिकदेव के प्रिय शिष्य पद्मरस ने इस स्वरूप-सम्बोधन-पंचविंशति (नामक ग्रंथ) को नवरस से भरे हुए मन से सुनते हुए कन्नड़-भाषामयी वृत्ति (टीका) अपने और दूसरों के हित की भावना से करायी।
महान् मंगल हो। श्री-श्री-श्री-श्री-श्री।
वीतराग परमात्मा के लिए नमस्कार है। विशेषार्थ:- यहाँ पर स्व-पर हितमागि' पद महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि अध्यात्मग्रंथों के टीकाकार ग्रंथ के व्याख्यान का मूल उद्देश्य आत्महित मानते हैं। मुनि रानसिंह ने 'व्याख्याग' का उद्देश्य. स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “यदि व्याख्यानकर्ता ने आत्मा में चित्त नहीं लगाया, तो मानो उसने अन्नकणों को छोड़कर भूसे का संग्रह किया। वे आगे स्पष्ट करते हैं कि 'जो ग्रंथ के शब्द और अर्थ में ही सन्तुष्ट हो जाता है, परनार्थ को नहीं पहिचान पाता है; वह मूर्ख है। अतः स्वहितपूर्वक शिष्यों एवं भव्यों का परम्परा से हित होना-ऐसास्व-पर हित' इस टीका का उद्देश्य टीकाकार ने स्पष्ट किया है।
}. दोहापाहुड़: पद्म 841 2. वही, पद्य 851
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