Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

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Page 150
________________ समन्वित माना है और अनेकत्र लिक भी किया है। टीका की भाषा शैली सरल एवं सुबोधगम्य है। इस टीका प्रति के सम्पादक 40 अजित कुमार शास्त्री ने बस इसे प्रकाशित भर कराया है, सम्पादन के नाम पर इसकी दुर्दशा ही की है। उदाहरणस्वरूप प्रकाशित टीका में मूलगन्धकार के पद्यों के पद एवं उनकी टीका को एक साथ प्रकाशित कर दिया है, दोनों में कुछ पता ही नहीं चलता कि कौन शब्द ग्रन्धकार का है, कौन टीकाकार का? तथा टीकाकार ने जिस “तथाप्यति तृष्णावान्......" पद्य की मूलग्रन्थ के पद्य के रूप में टीका की है, सम्पादक ने उस पर 'पाठान्तर' का ठप्पा लगा दिया है। और मूलग्रन्थ को पच्चीस श्लोकोंवाला बता दिया है. जब कि इस टीका में स्पष्ट रूप से छब्बीस पद्य हैं, जो कि प्राचीन प्रतियों के अनुसार हैं। टीका के प्रकाशन में प्रमाद और असावधानी भी बहुत हुई है, कई शब्द और पंक्तियाँ तक छुट गयी हैं। जिन्हें कोष्ठक के द्वारा पहाँ सूचित करने का प्रयास किया है। फिर भी पूरी तरह से मैं सन्तुष्ट नहीं है क्योंकि इस टीका की कोई अन्य प्रति मुझे नहीं मिली। सम्पादक ने अर्द्धविराम, अल्पविराम आदि सम्पादकीय विशेषताओं का प्रयोग तो किया ही नहीं है. विराम-चिह्न भी प्राय: गलत जगह पर दिये हैं; जिनको मैंने यथासंभव सुधारकर प्रकाशित किया है। एक और आश्चर्य की बात रही, वह यह कि विद्वान् सम्पादक ने दो-दो संस्कृत टीकायें प्रकाशित की; किन्तु उनमें से किसी का भी हिन्दी अनुवाद देना उचित नहीं समझा। उन्होंने अपनी स्वतन्त्र हिन्दी टीका प्रस्तुत की है। प्रतीत होता है कि कोई भी टीकाकार उन्हें इस स्तर का नहीं लगा कि उसकी टीका का हिन्दी रूपान्तरण किया जाय। इसके अतिरिक्त जो प्रूफसंशोधन-सम्बन्धी प्रचुर भूलें रहीं, उनका उल्लेख मैं अपेक्षित नहीं समझता: क्योंकि सम्पादक ने दुर्ग शहर में दशलक्षण पर्व के दस दिनों में ही इसे निबटाया था, जबकि प्रस्तुत प्रकाश्य 'स्वरूपसम्बोधनपञ्चविंशति' में प्रत्येक टीका की खोज, पाठान्वेषण, सम्पादन एवं सन्दर्भ-संग्रह आदि कार्यों में अनवरत कार्यरत रहते हुए भी डेढ़ वर्ष का समय लग गया। अत: मात्र दस दिनों में जो तीन ग्रन्थों को टीकासहित प्रकाशित करें-उनके कार्य में क्या अपेक्षा की जा सकती है? परन्तु ऐसी प्रवृत्ति शास्त्र के प्रति आपराधिक उपेक्षाभाव है। ____ अस्तु, यदि यही टीका कुछ समय पहिले मिली होती, तो इसको मूल में स्थान देता, न कि परिशिष्ट में; तथा इसका अनुवाद भी प्रस्तुत करता। किन्तु पूरा ग्रन्थ मुद्रित हो चुकने के बाद प्राप्त होने से मैं इसे परिशिष्ट में ही दे सका हैं। इस ४४

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