Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

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Page 151
________________ 1 टीका के मूलपाठ के बारे में भी कोई उत्साहजनक सूचना सम्पादक पं० अजित कुमार शास्त्री ने नहीं दी थी, उन्होंने मात्र इतना लिखा कि "यह टीका पूज्य आचार्य शिवसागर जी के संघस्थ मुनिश्री अजित सागर ने भेजी हैं।" - अब यह प्रति कहाँ होगी ? - कहना कठिन है। किस ग्रन्थभंडार की यह प्रति थी यह भी सम्पादक ने नहीं बताया है। चूंकि मूलप्रति नहीं मिल सकी तथा प्रकाशित प्रति में प्रूफ आदि सम्बन्धी उपेक्षाभाव बहुत था अतः पाठभेदों की तुलनात्मक प्रस्तुति भी मैं नहीं कर पाया । मूलपाठ देखे बिना इतनी असावधानी से प्रकाशित प्रति के पाठों को 'पाठभेद' की श्रेणी में रखना मुझे न्यायसंगत नहीं लगा । किं बहुना जैसी बन पड़ी, अज्ञातकर्तृक संस्कृत टीका यहाँ प्रस्तुत है अज्ञातकर्तक संस्कृत टीका टीकाकार का मंगलाचरण शुद्ध चैतन्यपिण्डाय सिद्धाय सुखसम्पदे । विमलागमसाराय नमोऽस्तु परमेष्ठिने ।। प्राक्कथन-श्रीमदकलंकदेव समस्तदुर्णयैकान्तनिराकृतदुराग्रहः समुत्पन्नपरमभेदविज्ञानप्रकाशितातिशयोऽशेषभव्यजनानां अनेकान्तरूपेण जीवपदार्थ प्रतिपादनार्थं स्वरूपसम्बोधनग्रन्थस्यादाविष्टदेवनमस्कारं मंगलार्थं कुर्वन्नाह - पद्य 1 ( मुक्तामुक्तैक......) की टीका - यः कश्चित् परमपदार्थः कर्मभिः ज्ञानावरणादिकर्मभिः संविदादिना सम्यग्ज्ञानादिगुणै: मुक्तामुक्तैकरूपः त्यक्तात्यक्तैकस्वभावः तम् आत्मोत्थसुखस्वभावम् अक्षयम् अव्ययं ज्ञानमूर्ति केवलज्ञानस्वरूपं परमात्मानं परमात्मपदार्थं नमामि नमरकरोमि । समस्त रागादिविभावरहित केवलज्ञानादिगुणसमूहसहितपरमात्मपदार्थ एव नमस्कारार्ह इति भावार्थ: ।। । पद्म 2 (सोऽस्त्यात्मा...) की उत्थानिका - परमात्मस्वरूपसंसिद्धिमभिलषन् ग्रन्थकार: सहजसुखसमुद्रं परमात्मानं प्रणिपत्य पुनः परमतत्त्वं निरूपयति टीका- यो यः कश्चित् सोपयोगः ज्ञानदर्शनोपयोगयुक्तः क्रमात् क्रमेण हेतुफलाबह: कार्यकारणस्वरूपावह: ग्राह्यग्राही ग्रही स्वपरवस्तुरवरूपं गृह्णाति जानतीति ग्रही, यद्वा अग्राह्य ग्राह्म पाठे च- अग्राह्यग्राहकरूपः इति अथवा ग्राह्योऽग्राह्य इति पाठोऽपि सहजज्ञान परिच्छेद्यो ग्राह्यः क्षयोपशमज्ञानेन अवैद्यत्वाद् अग्राह्यः इत्यर्थः । अयम् अनाद्यन्तः अनादिनिधनः स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकः धौव्योत्पत्तिविनाशरूपः अयम् एष: सुखनिधिर्यः स्वरूपयोगादिधर्मधन: आत्मा निर्विकारचैतन्यस्वभावः अस्ति 1 89

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