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आख्याति कहता है, च-और, आदरात्-आदरपूर्वक, श्रुप्पोति सुनता है. तस्मै उसके लिए (यह ग्रन्थ), परमात्मसंपदं परमात्मारूपी सिद्धि-सम्पत्ति को, करोति प्राप्त करता है-(ऐसा यह) स्वरूपसम्बोधनपंचविंशति: स्वरूप-सम्बोधन-पंचविंशति नामक ग्रंथ है।
हिन्दी अनुवाद (कन्नड़ टीका)-करता है, कौन करता है? 'स्वरूपसम्बोधनपंचविंशति' नामक यह ग्रन्थ, क्या करता है?-परमात्मपदरूपी सम्पत्ति को किसके लिए?-उसके लिए, वह अकेला क्या करेगा?-जो कोई प्रतिपादन करता है, और सुनता है आदर के साथ, किसको?-इस (जिन) वचनमय शास्त्र को, किस प्रकार से?-चिन्तन-मनन करके, किसका?-आत्मतत्त्व का, कैसे?-इस (के स्वाध्याय पूर्वक) प्रकार से।
हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-पूर्वोक्त प्रकार से निजस्वरूप को भली-भाँति जानकर जो श्रद्धापूर्वक शब्दमयी (इस शास्त्र का) व्याख्यान करता है और सुनता है, उस जीव के लिए स्वरूप सम्बोधन' नाम पच्चीस ग्रन्य प्रमाण यह ग्रन्थ परमात्मपद की प्राप्ति कराता है। इस प्रकार उपयोगादि अनेक धर्मों से भरे हुए (परिपूर्ण) स्वसंवेद्य आत्मा की निग्रन्थत्व के अभिप्राय से निर्णीत कर निस्संग होकर भावना करने पर परमात्मरूपी संपत्ति अथवा परमात्मपद की प्राप्ति अवश्य होती है-ऐसा तात्पर्य है।
विशेषार्थ:-ग्रंथ के प्रतिपाद्य विषय का वर्णन पूर्ण करने के बाद आचार्यदेव ने इस पद्म में ग्रन्थ का फल प्रतिपादित किया है।
इस ग्रन्थ को उन्होंने 'वाङ्मय' संज्ञा देकर द्वादशांगवाणी का अंग/भाग बताया है, व्यक्तिगतरूप से कही गयी कोई 'कथा' या 'अभिमत' नहीं माना है। अत: जो भी इसे पढ़े-सुने, वह द्वादशांगी जिनवाणी की गौरव-गरिमा के अनुरूप आदर एवं दिनयपूर्वक ही पढ़े या सुने; प्रमाद, तिरस्कार, टीका-टिप्पणी या छिद्रान्वेषण के अभिप्राय से नहीं।
इस विधि से इसका पठन-पाठन, श्रवण-श्रावण करने पर 'यह ग्रंथ उन पढ़ने-पझने, सुनने-सुनाने वालों को निज त्रिकाली धुव परमात्मपद की प्राप्ति का हेतु बन सकेगा' - ऐसा अभिप्राय अन्तिम प्रशस्ति के रूप में अकलंकदेव ने यहाँ व्यक्त किया है।