Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

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Page 137
________________ का बहुत विशद वर्णन किया है। पं० जयचन्द जी छाबड़ा ने भी 'अभिन्न षट्कारक व्यवस्था को परमसत्य बताया है। बताया है। लोक में भिन्न षटकारकों का कथन किया जाता है, किन्तु अध्यात्ममार्ग में अभिन्न षट्कारकों का कथन उद्देश्यपूर्ण है। आचार्य कुन्दकुन्द संकेतित करते है कि अभेद कारक व्यवस्था दृष्टि में आने पर कारकों सम्बन्धी अहंकार दूर हो जाता है तथा शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि होती है। आचार्य ब्रह्मदेव सूरि ने तो यहाँ तक लिख दिया कि आत्मा में अभिन्न पदकारक घटित हुये बिना परमात्मपद की प्राप्ति नहीं ( हो सकती है। यह अभिन्न षटकारक चिन्तन निश्चय नय का विषय है।' अभिन्न षट्कारकों की स्थिति को समझे और अपनाये बिना ध्यान संभव नहीं है। तत्त्वानुशासन में स्पष्ट लिखा है - "आत्मा, अपने आत्मा को, अपने आत्मा में, अपने आत्मा के द्वारा, अपने आत्मा के लिए, अपने आत्महेतु से ध्याता है; इसलिए कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण-ऐसे षट्कारक रूप परिणत आत्मा ही निश्चय से ध्यानस्वरूप है। १४ सामान्यत: छह कारकों का ही कथन आता है, किन्तु यहाँ अकलंकदेव ने | 'स्व' पर सातों विभक्ति-प्रत्ययों का प्रयोग किया है। आचार्य पूज्यपाद ने तो 'धर्म' पर आठों विभक्ति-प्रत्ययों का प्रयोग किया है "धर्म: सर्वसुखाकरो हितकरो, धर्म बुधाषिचन्वते । धर्मेणैव समाप्यते शिवसुलं, धर्माय तस्मै नमः ।। धर्माननास्त्यपर: सुहृद् भवभृता, धर्मस्य मूलं दया। धर्मे चित्तमहं दधे प्रतिदिनं, हे धर्म ! मां पालय ।।" विशेष द्र०, समयसार की आत्मख्याति टीका, गाथा 297; प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका' टीका, गाथा 16 तथा पंचास्तिकाय की तत्त्वप्रदीपिका 'टीका, गाथा 46 | प्रवचनसार था 16 की वचनिका 1 3. पंचाध्यायी, पूर्वार्द्ध, 331। प्रवचनसार, गाथा 160 | 5. प्रवचनसार, गाधा 1261 6. परमात्मप्रकाश टीका, 2016। 7. तत्त्वानुशासन, 29। 8. तत्त्वानुशासन, 741 9. नित्यपाठसंग्रह, पृष्ठ 280 |

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